________________
-.............--..--....--..----.--..
करना, प्रजा का न्याय करना, गुरुओं की विनय करना मित्रों को चन्दन के समान सुखकर होना", तथा काम के वशवर्ती न होना" ये राजा के प्रमुख गुण हैं । इन गुणों से युक्त राजा अपने कार्य की सिद्धि करता है । प्रशंसनीय गुण किसके कार्य को सिद्ध नहीं करता ? अर्थात् गुणों से सभी कार्य सिद्ध होते हैं । इससे प्रजाओं में सदा निर्दोष प्रेम उत्पत्र होता है। कोई भी व्यक्ति गुणों को छोड़कर प्रतिष्ठा को प्राप्त नहीं हो सकता है।
नीतिवाक्यामृत में प्रतिविम्बित राजा के गुण - राजा को सेवकों को आशा को पूर्ति करना चाहिए, नहीं तो उसकी प्रसन्नता कोई लाभ नहीं है । वह मन्त्री आदि में सावधान रहे । जिस प्रकार धनिकों की बीमारी बढ़ाना छोड़कर वैद्यों की जीविका का कोई उपाय नहीं, उसी प्रकार राजा को व्यसनों में फंसाने के सिवाय मंत्री आदि अधिकारियों (नियोगियों) की जीविका का कोई उपाय नहीं है । राजा को नीतिपूर्ण ढंग से कार्य करना चाहिए। नीतिविरुद्ध प्रवृत्ति करने वाले पुरुष की बढ़ती तत्काल बुझते हुये दीपक की बढ़ती के समान जड़मूल मे नष्ट करने वालो होती है | राजाओं को अपने पराक्रम का पूरा प्रयोग करना चाहिए । सिर मुड़ाता और जटाओं का धारण करना राजा का धर्म नहीं है। राजा समय-समय पर प्रजा को दर्शन देता रहे । प्रजा को दर्शन न देने वाले राजा का कार्य अधिकारी वर्ग स्वार्थवश बिगाड़ देते हैं और शत्रु लोग भी उससे द्रोह कर देते है | राजा को यह भी चाहिए कि यदि राजा प्रयोजनार्थियों का इए प्रयोजन नसिद्ध कर सके तो उनकी भेंट स्वीकार न करें । साम दामादि नैतिक उपायों के प्रयोग में निपुण, पराक्रमी व जिससे आमाता आदि राज कर्मचारी एवं प्रजा अनुरक्त है ऐसा राजा अस्पदेश का स्वामी होने पर भी चक्रवर्ती के समान निर्भय माना गया है। लोक व्यवहार जानने वाला मनुष्य सर्वज्ञ समान और लोकव्यवहार शून्य मनुष्य विद्वान होकर भी लोक द्वारा तिरस्कृत समझा जाता है। राजा इतना गुणी हो कि शत्रु की सभा में भी उसका गुणगान किया जाय। जिप्स राजा का गुणगान शत्रुओं की सभा में नहीं किया जाता है, उसकी उन्नति व विजय किस प्रकार हो सकती है | विजिगीषु जैसा वैसा (दुर्बल त्र शक्तिहीन) क्यों न हो यदि वह उत्तम, कर्तव्यपरायण व वीर पुरुषों के सानिध्य से युक्त है तो उसे शत्रु की अपेक्षा बलिष्ठ समझना चाहिए। राजा के प्रमुख गुण
1.अरिषड्वर्गविजय - काम,क्रोध, मद, मात्सर्य, लोभ और मोह ये 6 प्रकार के आन्तरिक शत्रु होते हैं, राजा को इनका विजेता कहा गया है। जो इन पर विजय प्राप्त नहीं करता है.अपनी आत्मा को नहीं जानने वाला यह राजा कार्य और अकार्य को नहीं जान सकता है । जीतने को इच्छा रखने वाले जितेन्द्रिय पुरुष क्षमा के द्वारा हो पृथ्वी जीतते है । जिन्होंने इन्द्रियों के समूह को जीत लिया है, शास्त्र रूपो मर्यादा का अच्छी तरह अषण किया है और जो परलोक को जीतने की इच्छा रखते हैं, ऐसे पुरुष के लिए सबसे उत्कृष्ट साधन क्षमा हो है राजा रुपी हाथी राज्य पाकर प्रायः मद से कठोर हो जाते हैं । परन्तु श्रेष्ठ राजा मद से कठोर नहीं, बल्कि स्वच्छ बुद्धि का धारक होता है । दूसरे राजा जवानी, रूप, ऐश्वर्य, कुल, जाति आदि गुणों के कारण गर्व करने लगते हैं, किन्तु श्रेष्ठ राजा शान्ति ही धारण करता है । इस प्रकार जो राजा उपर्युक्त छ: शत्रुओं को जीतकर स्वकीय राज्य में स्थिर रहते हैं वे इस लोक और परलोक दोनों में समृद्धिवान होते हैं।