Book Title: Jain Rajnaitik Chintan Dhara
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Arunkumar Shastri

View full book text
Previous | Next

Page 176
________________ 166 तथा निर्मम की परिभाषायें दी वे महान् अर्थ को अपने अन्दर संजोए हुए हैं। इन परिभाषाओं को राज्य नामक अध्याय में दिया गया है। चूकिं राज्य धर्म, अर्थ और कामरूप फलों को प्रदाता है। अतः नीतिवाक्यामृत के आदि में उसे नमस्कार किया गया है किन्तु धर्म से परम्पर या मोक्ष की उपलब्धि होती है अतः कहा जा सकता है कि राज्य पुरुषार्थ चतुष्टय (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष). का साधक है। राजा की आवश्यकता राजा मर्यादाओं का रक्षक और धर्मों की उत्पत्ति का कारण था। उसका आश्रय लेकर प्रजा सुख से निवास करती थीं। दुष्टों का निग्रह करना और शिष्ट पुरुषों का पालन करना रूप सम जसत्व गुण राजा में निहित था अतः लोक को राजा की आवश्यकता थी । राजा की महत्ता विभिन्न दृष्टियों से राजा का अत्यधिक महत्व था । पद्मचरित में राजा की मर्यादा, हरिवंशपुराण में लोकरंजन, छत्रचूड़ामणि में प्रजा वात्सल्य, उत्तर पुरराण में दानवीरता, चन्द्रप्रभूचरित में सर्वदेवमयत्व तथा नीतिवाक्यामृत में धर्मपरायणता एवं कुलीनता रूप गुणों का विशेष वर्णन किया गया है। उसके सत्य से मेघ कृषकों की इच्छानुसार बरसते हैं और वर्ष के आदि मध्य तथा अन्त में बोए जाने वाले सभी धान्य फल प्रदान करते हैं" । राजा के पृथ्वी का पालन करते समय जब सुराज्य होता है जो प्रजा उसे ब्रह्मा मानकर वृद्धि को प्राप्त होती है" | गुणवान् राजा देव, बुद्धि और उद्यम के द्वारा स्वयं लक्ष्मी का उपार्जन कर उसे सर्वसाधारण के उपभोग करने योग्य बना देता है, साथ ही स्वयं उसका उपभोग करता है" । राजा जब न्यायपूर्वक प्रजा का पालन करता हैं और स्नेहपूर्ण पृथ्वी को मर्यादा में स्थित रखता है, तभी उसका भूभृतपना सार्थक होता है या - राजा में नैतिक गुणों को अनिवार्यता प्राचीन भारतीय ग्रन्थों में राजा के लिए राजर्षि शब्द का प्रयोग प्राप्त होता है। लोकानुरञ्जन करने के कारण वह राजा तथा ऋषि के अनुकूल आचरण के कारण वह ऋषि था। यही कारण है कि विभिन्न ग्रन्थों में उसे अरिषड्वर्ग विजेता, (काम, क्रोध, मद, मात्सर्य, लोभ और मोह का विजेता) कहा गया है। जो राजा इन पर विजय प्राप्त 4 नहीं करता है, अपनी आत्मा को नहीं जानने वाला वह राजा कार्य और अकार्य को नहीं जान सकता है ।" । त्रिवर्ग का अविरोध रूप में सेवन करना, मध्यम वृत्ति का आश्रय लेना, कार्य को निश्चित समय पर करना, शत्रुओं का विजेता होना, प्रजापालन, सतत जागृत रहना, नियमपूर्वक कार्य करना, यथापराध दण्ड देना, न्यायपरायणता, सत्संग, प्रत्युपकार, समयानुसार कार्य करना, अनीतिपूर्ण आचरण का परित्याग तथा धार्मिकता आदि गुण राजा में नैतिक गुणों की अनिवार्यता को पुष्ट करते I सुशिक्षित राजकुमार राजकुमारों को उत्तम शिक्षा दिलाने का पूरा प्रयत्न किया जाता था, ताकि वह आगे राजकार्य पूर्णता से संचालन कर सके। सातवीं से दसवीं सदी के संस्कृत जैन काव्यों में राज्याभिषेक के समय, शिक्षा प्राप्ति के बाद अथवा अन्य विशेष अवसर पर माता-पिता अथवा गुरुजन राजपुत्र को शिक्षा देते हुए पाए जाते हैं जो गुरुजन स्वंय गुणी अर विद्वान होते हैं, उनका पुत्र को उसके ही कल्याण के लिए अपनी बहुज्ञता के अनुकूल उपदेश देना स्वाभाविक है" । प्राय: राजकुमारों को निम्नलिखित उपदेश दिए जाते थे

Loading...

Page Navigation
1 ... 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186