Book Title: Jain Rajnaitik Chintan Dhara
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Arunkumar Shastri

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Page 175
________________ एकादश अध्याय उपसंहार प्रस्तुत शोध प्रबन्ध के अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है कि आज से करीब बारह सौ तेरह सौ वर्ष पूर्व भारत के जैन साहित्य मनीषियों और चिन्तकों ने राजशास्त्र सम्बन्धी अनेक विषयों का यथेष्ट चिन्तन-मनन किया था । इस अध्ययन के फलस्वरूप हम निम्नलिखित निष्कर्षों पर पहुचते हैं : राज्य - सातवें से दशौं शताब्दी तक के संस्कृत जैन साहित्य में राज्य के सात अंग स्वामी (राजा),अमात्य, सुहृत, कोश, राष्ट्र, दुर्ग तथा बल (सेना) का प्रत्यक्ष या परोक्ष रुप में सम्यक् विवेचन उपलब्ध होता है। राज्य का लक्षण देते हुए आचार्य सोमदेव ने कहा है - राजा का पृथ्वी की रक्षा के योग्य कर्म राज्य है । सामान्य दृष्टि से विचार किया जाय तो राजा का पृथ्वी की रक्षा के योग्य कर्म अपने विस्तृत क्षेत्र और अर्थ को लिए हुए है। इसके अन्तर्गत आन्तरिक सुरक्षा वा बाह्यसुरक्षा दोनों के उपाय आते हैं। सोमदेव ने पृथ्वी पालनोचित कर्म से तात्पर्य सनिए, विग्रह, यान, आसन, संश्रय और वैधीभाव, जिन्हें सम्मिलित रूप में षाडगुण्य कहा जाता है, बतलाया है। इस प्रकार सोमदेव ने बाह्य सुरक्षा पर अधिक जोर दिया है । हो सकता है सोमदेव के काल में इस प्रकार की परिस्थिति रही हो कि बाहरी आक्रमण के खतरे के कारण आन्तरिक सुरक्षा की अपेक्षा बाह्य सुरक्षा पर अधिक ध्यान देना पड़ा हो, किन्तु यह निश्चित है कि बाह्य सुरक्षा के साथ साथ आन्तरिक सुरक्षा भी आवश्यक है, यही कारण है कि सोमदेव ने राज्य की उपर्युक्त परिभाषा के साथ साथ वर्ण तथा आश्रम से युक्त तथा धान्य, हिरण्य, पशु, एवं कुप्य (लोहा आदि धातुयें) तथा वृष्टि रुप फल को देने वाली पृथ्वी को भी राज्य कहा है ।सोमदेव के समय तक वर्ण और आश्रम व्यवस्था बद्धमल हो गयी थी । आन्तरिक सुरक्षा के लिए यह आवश्यक था कि लोग वर्ण आश्रम में विभक्त होकर अपने अपने कर्तव्यों का समुचित रूप में पालन करें, इसी से ही शान्ति कायम रह सकती थी । इसे ही कायम रखने हेतु दण्ड व्यवस्था, न्याय व्यवस्था, गुप्तचरों की नियुक्ति, नगर एवं ग्राम की रक्षा आदि साधन प्रयुक्त किए गए। राज्य एक बहुत बड़ी साधना है । जिस प्रकार तप में यह ध्यान रखा जाता है कि अप्राप्त इष्ट तत्व की प्राप्ति हो और प्राप्त इष्ट तत्व की रक्षा हो उसी प्रकार राज्यपालन के समय भी अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति (योग) और प्राप्त वस्तु की रक्षा (क्षेम) पर अधिक ध्यान दिया जाता है । योग और क्षेम के विषय में यदि प्रमाद हुआ तो अध: पतन हो जाता है प्रमाद न होने पर पारी उत्कर्ष होता है। आचार्य गुणभद्र ने सुखतत्त्व को प्रधानता दो । संसार में सारे कार्य सुख के लिए किए जाते हैं । अत: गुणभद्र ने कहा -'राज्यों में राज्य वही है जो प्रजा को सुख देने वाला हो । राजा प्रजा को सुख देने में तभी समर्थ हो सकेगा जब उसके पास रक्षा के लिए पर्याप्त सेना तथा आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पर्याप्त कोश हो। इसी को ध्यान में रखकर सोमदेव ने देश की परिभाषा दी-"स्वामी को दण्ड (सेना) और कोश की जो वृद्धि दे उसे देश कहते है। ऐसे देश के प्रति किसी भी व्यक्ति का पक्षपात होना स्वाभाविक है अत: कहा गया-समस्त पक्षपातों में देश का पक्षपात महान् है । राज्य और देश के साथ सोमदेव ने जो विषय, मण्डल, जनपद, दारक

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