Book Title: Jain Rajnaitik Chintan Dhara
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Arunkumar Shastri

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Page 177
________________ 167 (1) शत्रुओं पर नौतिपूर्वक विजय प्राप्त करना । (2) दुष्टों को दण्ड देना। (3) शिष्टों का पालन करना । (4) त्रिवर्ग का अविरोध रुप से सेवन करना । (5) कर्तव्य की भावना से दान देना । (6) सेवकों के प्रति क्षमाभाव रखना । (7) गुणों को ग्रहण करना, दोषों को छोड़ना । (B) यौवन, सौन्दर्य, ऐश्वर्य, बलवता को मनुष्य का अनर्थकारी मानना । (9) सज्जनों की संगति करना और दुर्जनों से दूर रहना । (10) अहंकार न करना । (11) कुतज्ञ होना। (12) परिवार को वश में रखना । (13) वृद्धजनों की सलाह से कार्य करना । (14) अपनी चित्तवृत्ति को छिपाए रखना। दोषपूर्णराजा -रविषेण आदिआचार्यों ने राजा के गुणों के साथ उनके दोषों का भी दिग्दर्शन कराया है, जो निम्नलिखित हैं (1) अत्यन्त क्रूर होना। (2) इन्द्रियों का वशवी होना । (3) सदाचार से विमुख होना । (4) लोभ में आसक्ति। (5) विचारशून्यता । (6) तम्णा (7) मूर्ख मनुष्यों से घिरा होना । (8) पुज्यपुरुषों का तिरस्कार करना । (9) अपनी जर्बदस्ती दिखलना । (10) अपने गुणों तथा दूसरे के दोषों को प्रकट करना । (11) अधिक कर लेना। . (12) अस्थिर प्रकृति का होना । (13) दूसरे के अपमान से मलिन हुई विभूति को धारण करना । (14) कठिनाई से दर्शन होना । (15) पुत्र का कुपुत्र होना। (16) सहायक, मित्र तथा दुर्ग आदि आधारों से रहित होना । (17) निर्दयौ, असहनीय और वैषी होला । . (18) बुरे रोगों से घिरा होता । (19) खोटे मार्ग में चलना।

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