Book Title: Jain Rajnaitik Chintan Dhara
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Arunkumar Shastri

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Page 165
________________ 155 बहुत सो हानियाँ होती है और उसका पविष्य भी बुरा होता है । अत: कुछ देकर बलवान् शुत्र के साथ सन्धि करना की है। । उत्तर को ससम्म मुहमारे सालेहोरामानों का पीछे किसी कारण से जो मैत्रीभाव हो जाता है, उसे सन्धि कहते हैं । यह सन्धि दो प्रकार की होती है - अवधिसहित (कुल समय के लिए) और अवधिरहिता (सदा के लिए)। नीतिवाक्यामृत के अनुसार दो राजाओं का कुछ शतों पर मेल हो जाना सन्धि है हीनशक्ति वाले राजा का धनादि देकर शत्रु राजा के साथ सन्धि कर लेना चाहिए, यदि उसके द्वारा की हुई व्यवस्था में मर्यादा का उन्धन न हो । यदि शत्रु द्वारा भविष्यकालीन अपनी कुशलता का निश्चय हो जाय कि शत्रु मुझे नाष्ट नहीं करेगा और न मैं शत्रु को नष्ट करूंगा, तब उसके साथ विग्रह न कर मित्रता हो करना चाहिए | जन्न कोई सीमाथिपति शक्तिशाली ही और वह भूमिग्रहण करने का इच्छुक हो तो उसे भूमि से पैदा होने वाली धान्य अनित्य (कुछ सपय बाद नष्ट होने वाली) है (अत: पैदावार देने में कोई हानि नहीं है) । यदि शत्रु के हाथ में भूमि चली गई तो पुनः प्राप्त नहीं हो सकता है। जिस प्रकार तिरस्कार पूर्वक भी आरोपण किया हुआ वृक्ष पृथ्वी पर अपनी जड़ों के कारण हो फैलता है, उसी प्रकार विजिगीषु द्वारा दी हुई पृथ्वी को प्राप्त करने वाला सीमाधिपति भी दृवमूल होकर पुनः उसे नहीं छोड़ता। विग्रह - शत्रु तथा उसे जीतने का इच्छुक राजा ये दोनों परस्पर में एक दूसरे का अपकार करते हैं, उसे विग्रह कहते हैं। | अथवा किसी के द्वारा किए हुए अपराधवश युद्ध करना विग्रह है । बदि विजिगीषु शत्रु राजा से सैन्य व कोष आदि में अधिक शक्तिशाली है और उसकी सेना में क्षोम.नहीं है, तब उसे शत्रु से युद्ध छेड़ देना चाहिए । यान - अपनी वृद्धि और शत्रु को हानि होने पर अथवा दोनों होने पर शत्रु के प्रति जो उधाम (शत्रु पर आक्रमण करने के लिए गमन) है, उसे यान कहते हैं (यह यान अपनी वृद्धि और शत्रु की हानि रूप फल देने वाला है | राजा यदि सर्वगुण सम्पन्न है एवं उसका राज्य निष्काम्टक है तथा प्रजा आदि का उस पर कोप नहीं है तो उसे शत्रु के साथ युद्ध करना ही ठीक है जो राजा स्वदेश की रक्षा न कर शत्रु के देश पर आक्रमण करता है, उसके कार्य नंगे को पगड़ी थोने के समान निरर्थक है | ___ आसन - इस समय मुझे कोई दूसरा और मैं किसी दूसरे को नष्ट करने में समर्थ नहीं हूँ. ऐसा विचारकर जो राजा चुप बैठा रहता है, उसे आसन कहते हैं । यह आसन नामक गुण राजाओं की वृद्धि का कारण है।14 ) नीतिवाक्यमृत के अनुसार शत्रु के आक्रमण को देखकर उसको उपेक्षा करना आसान है। संश्रय - जिसका कोई शरण नहीं है, उसे अपनी शरण में रखना संश्रय नामक गुण है। आचार्य सोमदेव के अनुसार बलिष्ठ शत्रु द्वारा देश पर आक्रमण होने पर जो उसके प्रति आत्मसमर्पण किया जाता है, उसे संश्रय कहते हैं। यदि शत्रु राजा व्यसनी नहीं है तो शक्तिहीन को उसके सामने समर्पण कर देना चाहिए । ऐसा करने से निर्बल राजा उसी प्रकार शक्तिशाली हो जाता है, जिस प्रकार अनेक तन्तुओं के आश्रय से रस्सी में मजबूती आ जाती है । बलवान का ही आश्रय लेना चाहिए । जो शत्रु के आक्रमण के भय से बलहीन का आश्रय लेता है, उसकी उसी प्रकार हानि होती है, जिस प्रकार हाथो द्वारा होने वाले उपद्रव से डर से एरण्ड के वृक्ष पर चढ़ने वाले मनुष्य की तत्काल हानि होती है। जो स्वयं अस्थिर है वह यदि दूसरे अस्थिर राजा

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