Book Title: Jain Rajnaitik Chintan Dhara
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Arunkumar Shastri

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Page 170
________________ 16i0 जब तक शत्रु आक्रमण नहीं करता तब तक स्वार्ग के समान पारी रहता है, वही जब शत्रुओं मे तोला जाता है तब वह तत्क्षण तृण के समान हलका हो जाता हैं । क्षमा असंदिग्ध रूप से कल्याण का कारण कही गयी है, किन्तु वह प्रतधारियों के लिए गुण है, राजाओं के लिए नहीं। संमार के अनुयायी और मुक्ति की कामना करने वालों में बड़ा अन्तर है । चन्द्रमा की किरणों को सभी चाहते है किन्तु सुर्य की और आँख उठाकर भी नहीं देख सकते । यह सब तेज की महिमा है । दूमरे के मन के मार्ग पर चलने वाले निल्न पीड़ित होन पुमा के लौतन को शिकार हैं पूंजर आदि इलाकर ललित अनुनय विनय करके तो कुत्ता भी अपने पेट पाल लेता है। अपने उचित महत्त्व को छोड़कर जो दुष्ट पुरुष से प्रिय वचन कहता है वह जलशून्य बादल की तरह गरजकर अपनी असारता प्रकट करता है। चाहे जन्म के पहले ही मर जाय या विनष्ट हो जाय, किन्तु पराधीन होकर रहना अच्छा नहीं है । मान के विनाश को कोई नहीं सह मकता।स्वाभाविक तेज से रहित पुरुष को बलपूर्वक बैंल की तरह पकड़कर सभी पुरुष चालाते हैं, अत: महापुरुष सिंह के आचरण को पमन्द करते हैं। प्रबल हिस्सेदारों से लड़ने के कारण जन्म शत्रु की शक्ति क्षीण हो गई हो और उसके मित्र मंकट में पड़े हुए हो, उस समय उस पर चढ़ाई कर देना चाहिए। शत्रु के स्थान पर चढ़कर ही भाग्नशाली पुरुष ही सम्पत्ति पाने में सफल होता है । लोहा आग से नरम होता है, और जल से नरम बनाता है, इसी तरह दुर्जन भी शत्रुओं से पीड़ित होकर ही नम्रता को धारण करता है अन्यथा नहीं । शत्रु के पास आदि आवश्यक सामग्री की चोरी करा लेना, उनका बय करना, किसी वस्तु को छिपा देना अथवा नष्ट कर देना शत्रु का वध करना, उसे क्लेश पहुँचाना या उसके धन का अपहरण करना"। दण्ड़ है। भेद - उपजाप (परम्पर फूट) के द्वारा अपना कार्य सिद्ध करना भेद कहलाता है। शत्रु के द्वारा वश में करणीय मंत्री आदि यदि नहीं फूटते हैं तो शत्रु भेदनीति द्वारा नहीं जीता जा सकता है और यदि मन्त्री आदि में फूट पड़ गई तो शत्रु पराजित ही समझना चाहिए' । सदैव शत्रु का प्रतीकार माम द्वारा नहीं होता है । यदि शत्रु का प्रतीकार साम द्वारा आरम्भ हो जाये तो गुप्तचरों की आवश्यकता है ? अर्थात् तब तो गुप्तचरों की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। अत: शत्रु के सनिकट परार्मशदाताओं में भेद डाल देना चाहिए | भेद के शिकार राज्य पर विजय उसी प्रकार आमान होती है, जैसे बन के द्वारा भेदे गथे मणि में आसानी से धागा डाला जा सकता है। | आचार्य सोमदेव के अनुसार अपने सेनानायक तीक्ष्ण व अन्य गुप्तचर तथा दोनों तरफ से वेतन पाने वाले गुप्तचरों द्वारा शत्रु की सेना में परस्पर एक दूसरे के प्रति सन्देह उत्पन्न करना या उनमें फुट डालना भेदनौति उपायों का सम्यक प्रयोग - जो व्यक्ति नीति में चतुर है. उसे भेदा नहीं जा सकता है. जो पराक्रमी है उसे युद्ध में वश नहीं किया जा सकता है । इसी प्रकार जिसका आशय विकृत है उसके साथ साम (शान्ति) का प्रयोग नहीं किया जा सकता है।% | जिस प्रकार लौहा तपाने से मरम नहीं होता है, उसी प्रकार तेजस्वी मनुष्य कष्ट देने से नरम नहीं होता, अत: उसके साथ दण्ड का प्रयोग नहीं किया जा सकता । अनुनय विनय कर पकड़ने योग्य हाथी पर ही दण्ड चल सकता है, सिंह पर नहीं चल सकता" | जो व्यक्ति साम, दान, दण्ड और भेदरूप उपायों का विपरीत प्रयोग करता है, अथवा उपाय आनता नहीं है, वह दुःखी होता है । इसके विपरीत जो इन उपायों को जानता है, यह प्रजा को अनुरक्त का लेता है । आचार्य गुणभद्र के अनुसार समादि उपायों का ठीक

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