Book Title: Jain Rajnaitik Chintan Dhara
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Arunkumar Shastri

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Page 150
________________ न्याय एवं प्रशासन व्यवस्था न्याय की आवश्यकता - दुष्टों का निग्रह करना और शिष्टों का पालन करना यह राजाओं का धर्म नीतिशास्त्रों में बतलाया गया है। स्नेह, मोह, आसिक्त तथा भय आदि कारणों से यदि राजा ही नोति मार्ग का उल्लंघन करता है तो प्रजा भी उसकी प्रवृत्ति करती है । अतः राजा को चाहिए कि उसका दायां हाथ भी यदि दुष्ट हो तो उसे काट दे । उसके पृथ्वी के रक्षा करते समय अन्याय यह शब्द ही सुनाई न दे और प्रजा बिना किसी प्रतिबन्ध के अपने-अपने मार्ग में प्रवृत्ति करे। दुराचार करने वालों को वश में करने के लिए दण्ड को छोड़कर अन्य कोई उपाय नहीं है क्योंकि जिस प्रकार टेढ़ी लकड़ी आग लगाने से ही सीधी होती है, उसी प्रकार दुराचारी दण्ड से ही सीधे होते हैं । इस प्रकार दुराचारियों का दुराचार रोकने के लिए और सदाचारियों की रक्षा के लिए न्याय की आवश्यकता पड़ी। न्यायाधीश - ग्राम व नगर में मुकदमों का निर्णय कराने के लिए लोग राजा के पास जाते धे' । क्योंकि ऐसा माना जाता था कि राजा द्वारा किया हुआ निर्णय निर्दोष होता है । इस प्रकार न्याय सम्बन्धी मामलों में राजा सर्वोपरि होता था । जो राजाज्ञा अथवा मर्यादा का अतिक्रमण करता था, उसे मृत्युदण्ड दिया जाता था । राजा के बाद न्याय के क्षेत्र में दूसरा स्थान धर्माध्यक्ष या न्यायधीश का होता था । धर्माध्यक्ष को राजसभा में राजा को प्रसन्न करते हुए वादी प्रतिवादो के विवाद का निर्णय इस ढंग से करना चाहिए कि उसके ऊपर उलाहना न आए और उक्त दोनों में से कोई एक दोषी ठहराया जाय । धमांध्यक्ष अपने स्वामी का पक्ष लेकर सत्य - असत्य बोलने वाले वादो के साथ लड़ाई झगड़ा न करें । जनता को चाहिए कि परस्पर विवाद होने पर वह न्यायाधीश वगैरह से विवाद की समाप्ति करा लें, क्योंकि अपने-अपने पक्ष का समर्थन करने वाली युक्तियों अनन्त होती है। सभ्य - सभा के सदस्य को सभ्य कहते थे । सभ्य सूर्य के समान पदार्थ को जैसा का तैसा प्रकाशित करने वाली प्रतिभा से युक्त होना चाहिए । जिन्होंने राजशासन सम्बन्धी व्यवहारों का शास्त्र द्वारा अनुभव नहीं किया हो और न सुना हो, जो राजा से ईष्या व वाद-विवाद करते हों, वे राजा के शत्रु हैं, सभ्य नहीं है। जिस राजा की सभा में लोभ व पक्षपात के कारण झूठ बोलने वाले सभापद होंगे ये निस्सन्देह मान व धन की क्षति करेंगे। जो सभ्य छल, कपट, बलात्कार व वाक्याचुर्य द्वारा बादी की स्वार्थहानि करते हैं, वे अधम हैं। न्यायिक उत्तरदायित्व - वहाँ पर वाद-विवाद से कोई लाभ नहीं है, जहाँ सभापति स्वयं विरोधी हो । सभ्य और सभापति में असाम जस्य होने पर विजय नहीं हो सकती है। जिस प्रकार से बकरे मिलकर कुत्ते को जीत लेते हैं, उसी प्रकार बहुत से सभ्य मिलकर न्यायाधीश को प्रभाषित करते हैं । जहाँ पर मिध्या विवाद खड़ा हो, वहाँ निर्णय करने के लिए (सभ्यपुरुषों को) विवाद नहीं करना चाहिए।

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