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का ज्ञाता तथा प्रिय वेषधारी होना चाहिए। दूत को ऐसे वचनों का प्रयोग करना चाहिए, जिनसे जो बात कहना हो यह भी न छूटे और वह अशिष्ट रीति से न कहीं जाय । दूत विविध भाषाओं, लिपियों और वेषों के ज्ञाता गुप्तचरों द्वारा प्रजा की उदासीनता वगैरह को भांपकर अपने कर्तव्य का निश्चय करें | वह सब कार्यों को करने में समर्थ, भविष्यत को जानने वाला तथा प्रसिद्ध पराक्रमी हो । लोभी दूत का अन्तरंग स्वभाव (चेतना) खंडित हो जाता है, वह किसी प्रकार से हो जीता है।
लोभवश दूतों के शत्रु के वश में हो जाने पर तथा अपनी प्रकृति के विरूद्ध हो जाने पर राजा का राज्य भी उसके शरीर में सोमित हो जाता है।
दूतों के भेद दूत तीन प्रकार के होते हैं (3) शासनहार
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(1) निसृष्टार्थ (2) परिमितार्थ
निसृष्टार्थ स्वामी के कान के पास रहने वाले, रहस्य रक्षा करने वाला, सुनियोजित, पत्र लेकर जल्दी जाने वाला मार्ग में सीधे जाने वाला, शत्रुओं के हृदय में प्रवेश कर कठिन से कठिन कार्य को सिद्ध करने वाला * तथा विवेकी बुद्धि वाला दूत निमृष्टार्थ कहलाता है। आचार्य सोमदेव के अनुसार जिसके द्वारा निश्चित किए हुए सन्धि विग्रह को उसका स्वामी प्रमाण मानता है, वह निसृष्टार्थ है । जैसे पाण्डवों के कृष्ण ।
परिमितार्थ या मितार्थ- परिमित समाचार सुनाने वाले" अथवा राजा द्वारा भेजे हुए सन्देश और लेख को जैसा का तैसा शत्रु को कहने वाला दूत परिमितार्थ या मितार्थ कहलाता है । शासनहारी उपहार के भीतर रखे हुए पत्र को ले जाने वाले दूत को शासनहारी कहा जाता
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हैं" ।
दूतों का कार्य दूत का कार्य बड़ा साहसपूर्ण था। स्वामी के अभिप्राय के अनुसार उसे शत्रु पक्ष से निवेदन करना पड़ता था। इतना होते हुए भी दूत अवध्य था" । रावण के श्रृष्ट अभिप्राय को व्यक्त करने वाले दूत पर ज्यों ही भामण्डल ने तलवार उठाई, त्यों ही नीतिवान् लक्ष्मण ने उसे रोक लिया। यहाँ पर लक्ष्मण कहते हैं कि प्रतिध्वनियों पर लकड़ी के बने पुरुषाकार पुतलों पर, सुआ आदि तियेचों पर और यन्त्र से चलने वाली पुरुषाकार पुतलियों पर सत्पुरुषों को क्या क्रोध करना है ? ऐसे ही एक स्थल पर दूत के प्रति कहा गया है जिसने अपना शरीर बेच दिया है और तोते के समान कही बात को ही दुहराता है ऐसे दूत पापी, दोनहीन भृत्य का अपराध क्या है ? दूत जो बोलते हैं, पिशाच की तरह अपने हृदय में विद्यमान अपने स्वामी से ही प्रेरणा पाकर बोलते हैं। दूत यन्त्रमयी पुरुष के समान पराधीन है
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दूत शत्रु द्वारा अज्ञात होकर उसकी आज्ञा के बिना न तो शत्रुस्थान में प्रविष्ट हो और न वहाँ से निकले 37 । जब दूत को यह निश्चय हो जाय कि यह शत्रु मेरे स्वामी से सन्धि नहीं करेगा, किन्तु बुद्ध करने का इच्छुक हैं और इसी कारण मुझे यहाँ रोक रहा है, तब उसे शत्रु की आज्ञा के बिना ही वहाँ से प्रस्थान कर देना चाहिए या स्वामी के पास गुप्तदूत भेज देना चाहिए" । यदि शत्रु दूत को देखकर हो वापिस लौटा दिया हो तो दूत उसका कारण सोचें । दूत शत्रु के यहाँ ठहरकर निम्नलिखित " कार्य करे ।