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तथा मानसिक सन्ताप होता है एवं भूखा प्यासा रखने से पापबन्ध होता है । बूढ़े, बालक, रोगी एवं कमजोर पशुओं का अपने बान्धवों के समान पोषण करना चाहिए। तादात्विक, मूलहर एवं कदर्य को संकट सुलभ हैं74 । जो मनुष्य कुछ भी विचार न कर कमाए हुए धन का व्यय करता हैं, उसे तादात्यिक कहते हैं । जो व्यक्ति अपने पिता और पितामह की सम्पत्ति को अन्याय से ( कुव्यसनों से) भक्षण करता है, उसे मूलहर कहते हैं। जो व्यक्ति सेवकों तथा अपने को कष्ट में पहुँचाकर धन का संचय करता है, उसे लोभी कहते हैं" । तादात्विक और मूलहर मनुष्यों का भविष्य में कल्याण नहीं होता है" । लोभी का संचित धन राजा, कुटुम्बो और चोर इनमें से किमी एक का है" । अतः मनुष्य को अपनी आय के अनुरूप व्यय करना चाहिए।
अर्थलाभ के तीन भेद अर्थलाभ तीन प्रकार का होता है - (1) नवीन (2) भूतपूर्व (3)
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पैतृक" ।
राजग्रा धन - राजा कोष बढ़ाता हुआ (न्यायोचित उपायों द्वारा ) प्राप्त धन का उपयोग करे। जो राजा अपनी प्रजा को सब प्रकार कष्ट देता है, उसका कोष रिक्त हो जाता है | अतः राजा को इस प्रकार धनग्रहण करना चाहिए, जिससे प्रजा को पीड़ा न हो और उसके घन को क्षति न हो" । राजा यकायक मिले हुए धन को कोष में स्थापित कर उसकी वृद्धि करें" ।
सुर्ग
दुर्ग की परिभाषा : जिसके पास प्राप्त होकर या जिसके सामने युद्ध के लिए बुलाए गए शत्रु लोग दुःख अनुभव करते हैं अथवा जो दुष्टों के उद्योग द्वारा उत्पन्न होने वाली आपत्तियाँ नष्ट करता है, उसे दुर्ग कहते हैं ।
दुर्ग का महत्व दुर्ग राजा और उसकी सेना वगैरह के बचाव के उत्तम आश्रय स्थल थे. उन्हें शत्रु द्वारा अलंघनीय" कहा गया है। किले में सुरक्षित राजा पर विजय प्राय: चारों ओर से उसका आवागमन रोककर की जाती थी। शत्रु द्वारा आक्रान्त होने के साथ-साथ कभी-कभी शत्रु पर आक्रमण करने के लिए भी दुर्ग का आश्रय लेना पड़ता था। राजा कुण्डलभण्डिल दुर्गापगढ़ का अवलम्बन कर सदा राजा अनरण्य को भूमि को उस तरह विराधित करता रहता था जैसे कुशील मनुष्य कुल की मर्यादा को विराधित करता रहता है । वर्धमान चरित के चीधे सर्ग से ज्ञात होता है कि विशाखनन्दी ने विश्वनन्दी के साथ युद्ध में विजय प्राप्त करने की इच्छा से उसके धन को भंयकर दुर्ग बना दिया। इस प्रकार दुर्ग का महत्व दो दृष्टियों से था -
(1) आक्रमण से रक्षा |
(2) शत्रु पर आक्रमण कर उस पर विजय प्राप्त करना ।
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दुर्ग रचना दुर्ग के चारों ओर कोट तथा गहरी परिखा (खाई) होती थी। चारों ओर नाना प्रकार के यन्त्रों से उसे घेरा जाता था तथा शूरवीरों का समूह उसकी रक्षा करता था उसके बीचबीच में पताकायें फहरा दी जाती थी ।
'आचार्य सोमदेव ने दुर्गरचना के लिए निम्नलिखित बातें" आवश्यक बतलाई हैं (1) दुर्ग की जमीन विषम (ऊँची नीची) और पर्याप्त अवकाश वाली हो।
(2) दुर्ग ऐसे स्थान पर बनाया जाय जहाँ स्वामी के लिए घास, ईंधन और जल बहुतायत से प्राप्त हो सकें, किन्तु शत्रु के लिए इनका अभाव हो ।