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व्यूह रचना सेना, बुद्धि, भूमि, ग्रहों की अनुकूलता, शत्रु द्वारा किया जाने वाला युद्ध का उद्योग और सैन्यमण्डल का विस्तार ये सुसंगठित सैन्यव्यूह की रचना के कारण * अच्छी तरह से रचा हुआ भी व्यूह तब तक स्थिर रहता है, जब तक शत्रु की सेना दृष्टिगोचर नहीं होती है "" । प्राचीन काल में अनेक प्रकार के व्यूहों की रचना की जाती थी। इनमें से कतिपय व्यूहों का विवरण हरिवंशपुराण में इस प्रकार प्राप्त होता है
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चक्रव्यूह - इसमें चक्राकार रचना को जाती थी । चक्र के एक हजार आरे होते थे। एकएक आरे में एक-एक राजा स्थित होता था, एक-एक राजा के सौ-सौ हाथी, दो-दो हजार रथ, पाँच-पाँच हजार छोड़े और सौलह-सौलह हजार पैदल सैनिक होते थे। चक्र की धारा के पास छह हजार राजा स्थित होते थे और उन राजाओं के हाथी, घोड़ा आदि कः परिवार पुत्रवत परिमाग से चौथाई भाग प्रमाण था । पाँच हजार राजाओं के साथ में प्रधान राजा उसके मध्य में स्थित होता था। कुल के मान को धारण करने वाले धीर-वीर पराक्रमी पचास-पचास राजा अपनी-अपनी सेना के साथ चक्रधारा की सन्धियों पर अवस्थित होते थे आरों के बीच-बीच के स्थान अपनीअपनी विशिष्ट सेनाओं से युक्त राजाओं सहित होते थे। इसके अतिरिक्त व्यूह के बाहर भी अनेक राजा नाना प्रकार के व्यूह बनाकर स्थित होते थे ।
गरुडव्यूह - चक्रव्यूह को भेदने के लिए गरूड़ व्यूह की रचना की जाती थी। उदात रण में शूरवीर तथा नाना प्रकार के अस्त्र शास्त्रों को धारण करने वाले पचास लाख योद्धा उस गरूड़ के मुख पर खड़े किये जाते थे। प्रधान राजा उसके मस्तक पर स्थित होते थे। मुख्य राजा के रथ की रक्षा करने के लिए अनेक राजा उनके पृष्ठरक्षक माने जाते थे। एक करोड़ रथों सहित एक राजा गरूड़ के पृष्ठ भाग पर स्थित होता था। उस राजा की पृष्ठ रक्षा के लिए अनेक रणवीर राजा उपस्थित होते थे । बहुत बड़ी सेना के साथ एक राजा उस गरूड़ के दायें पंख पर स्थित होता था और उनकी अगल बगल की रक्षा के लिए चतुर शत्रुओं को मारने वाले सैकड़ों प्रसिद्ध राजा पच्चीस लाख रथों के साथ स्थित होते थे। गरूड़ के बायें पक्ष का आश्रय ले महाबली बहुत से योद्धा अथवा राजागण युद्ध के लिए खड़े होते थे। इन्हीं के समीप अनेक लाख रथों से युक्त शस्त्र और अस्त्रों में परिश्रम करने वाले राजा स्थित होते थे । इनके पीछे अनेक देशों के राजा साठ-साठ हजार रथ लेकर स्थित होते थे । इस प्रकार ये बलशाली राजा गरूड़ की रक्षा करते थे । इनके अतिरिक्त और भी अनेक राजा अपनी-अपनी सेनाओं के साथ मुख्य राजा के कुल की रक्षा करते थे ।
केतुरचना - प्रत्येक राजा के रथ पर उसकी विशिष्ट ध्वजा होती थी, जिससे वह पहचाना जाता था । हरिवंशपुराण में गरूड़ ध्वजः वृषकेतु'' (बैल चिन्ह से अंकित पताका), ताल ध्वज' बानर ध्वज'' हाथी ध्वज, सिंह ध्वज, कदली ध्वज, हरिणध्वज शुशुमाराकृतिध्वज, पुष्करध्वज" ( कमल को ध्वजा ) तथा कलशध्वज 0 इस प्रकार अनेक ध्वजाओं का उल्लेख मिलता है ।
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कूटयुद्ध - दूसरे शत्रु पर आक्रमण कर वहां से सैन्य लौटाकर युद्ध द्वारा जो अन्य शत्रु का घात किया जाता है, उसे कूटयुद्ध कहते हैं " ।
तृष्णयुद्ध विषप्रदान घातक पुरूषों को भेजना, एकान्त में शत्रु के पास जाना व भेदनीति इन उपायों द्वारा जो शत्रु का घात किया जाता है उसे तुष्णीयुद्ध कहते हैं ।