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सेवा में उपस्थित होते थे कुछ महागवं रूपी हाथी पर चढ़कर अपनी शोर्य के मद में भरी हुई सेना के साथ बलशाली राजा के शस्त्रों की अग्नि शिखा में भस्म हो जाते थे"। कुछ प्रतापी राजा की सेना के द्वारा दले मले जाने के भय से स्त्री और पुत्रादि को छोड़कर अपने शरीर की रक्षा को ही बहुत मानते हुए जंगल में भाग जाते थे। बहुत से भयविह्वल हो कठोर घास वाले कुठार को कंठ से लगाकर शरण में आ जाते थे। कुछ दर्पहीन होकर वाहन, धन, धान्य और सम्पूर्ण रत्न कलाओं की राजसभा में ऐसे राजाओं की भीड़ लगी 'रहती थी । द्वारपालों के द्वारा अपना नाम और कुल कहलाकर फिर भीतर जाकर वे वृथ्वी पर सिर रखकर प्रणाम करते थे। शत्रुओं के हाथ जुड़वाकर, उनका मान मिटाकर तथा उनसे सारांशस्वरूप रत्नादि लेकर उनका राज्य वापिस कर दिया जाता था। किसी कारण अब प्रतापी राजा का शासन शिथिल पड़ जाता था तब समस्त मण्डल स्वतन्त्र हो जाते थे, क्योंकि आलस्य सभी की अवनति या तिरस्कार कर कारण होता है ।
शत्रुविजय अपने शत्रु के कार्यों की प्रबलता और उसके विचार को जानकर प्रतीकार करना चाहिए । इस प्रकार उत्तम उपायों से प्रसिद्ध मनुष्य कार्य को पूर्ण करने में रूकावट रहित होते हैं । शत्रु यदि अत्यन्त छोटा भी हो तो उसकी उपेक्षा नहीं करना चाहिए। आंख में पड़ी हुई धूलि के कण के समान उपेक्षा किया हुआ शत्रु भी पीड़ा देने वाला हो जाता है। काँटा यदि अत्यन्त छोटा भी हो तो भी उसे बलात् निकाल देना चाहिए, क्योंकि पैर में लगा काँटा यदि निकल नहीं जाता तो वह अत्यन्त दुःख देने वाला हो जाता है । जिस प्रकार दुष्ट सर्पों को मन्त्र के बल से उठाकर बामी में डाल देते हैं, उसी प्रकार भोग विलासी राजाओं को बलवान राजा मन्त्र के जोर से उखाड़कर किले में डाल देते हैं । जिस प्रकार वृक्ष की शाखाओं के अग्रभाग की रगड़ से उत्पन्न हुई अग्नि पर्वत का विघात करने वाली होती है, उसी प्रकार भाई आदि अन्तरंग प्रकृति से उत्पन्न हुआ कोप राजा का विघात करने वाला होता है" । सजातीय लोग परस्पर के विरूद्ध आचरण से अंगारे के समान जलते रहते हैं और वे ही लोग अनुकूल रहकर नेत्रों को आनन्दित करते हैं । तेजस्वी पुरुष बड़ा होने पर भी अपने सजातीय लोगों द्वारा रोका जाता है। प्रणाम करने वाला शत्रु स्वामी के मन को उतना अधिक दुःखी नहीं करता है, जितना कि अपने को झूठमूठ चतुर मानने वाला और अभिमान से प्रणाम नहीं करने वाला भाई करता है | अतः बाह्यमण्डल के समान अन्तर्मण्डल को भी वश में करना चाहिए। बुद्धिमान् पुरुष ऋण, घाव, अग्नि और शत्रु के बाकी रहे हुए थोड़े से भी अंश की उपेक्षा नहीं करते
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महाकवि असग का भी कहना है कि परिपाक में पथ्य को चाहने वाला शत्रु की बढ़ी हुई वृद्धि को जरा भी नहीं चाहता । शत्रु और रोग दोनों को यदि थोड़ेकाल तक सहसा बढ़ते रहने दिया जाय तो ये थोड़े ही काल में प्राणों के ग्राहक हो जाते हैं। बहुत भारी तिरस्कार करने वाले विरूद्ध शत्रु पर भी जो पौरुष नहीं करता है वह पोछे अपनी स्त्री के मुखरूपी दर्पण में प्रतिबिम्बित कलंक को देखता है। अर्थात् स्त्रियों के समक्ष उसे लज्जित होना पड़ता है। जो उदारबुद्धि हैं वे एक क्षण के लिए भी तेज को नहीं छोड़ते हैं। तेजस्वियों का कोई भी बाल बांका नहीं कर सकता। जो सिंह मदोन्मत्त हाथियों के कुम्भस्थलों के विदारण करने में अतिदक्षता रखता है, यदि उसको आँख निद्रा से सुंद जाये तो भी उसकी सटा (गर्दन के बल) को गीदड़ नष्ट नहीं कर सकते