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विजययात्रा के साथ शत्रु राष्ट्र को नष्ट करने के लिए उसकी सेना में मिल जाती है । क्षात्रतेज, शस्वविद्या में निपुणता शार्य तथा (स्वामी के प्रति) अनुराग ये औत्साहिक सेना के गुण है । राजा मौलबल के अविरोधपूर्वक उत्साही सेना को दान-सम्मान के द्वारा अनुग्रहीत करे | मौल सेना आपत्ति में साथ देती है, दण्डित किए जाने पर भी द्रोह नहीं करती तथा शत्रुओं द्वारा फोड़ी नहीं जा सकती है।
सेना की गणना - गणना की दृष्टि से सेना के आठ मेद किए जाते थे - (1) पत्ति (2) सेना (3) सेनामुख (4) गुल्म (5) वाहिनी (6) पृतना (7) चमू और (8) अनीकिनी ।।
पति - जिसमें एक रथ, एक हाथी, पंच प्यादे और तान बड़े होते हैं, वह पत्ति कहलाती
सेना - तीन पति की एक सेना होती है । सेनामुख - तीन सेनाओं का एक सेनामुख होता है । गुल्म - तीन सेनामुखों का एक गुल्म होता है। वाहिनी - तीन गुल्मों की एक वाहिनी होती है। पृतना - तीन वाहिनियों की एक पृतना होती है । चमू - सीन पृतनाओं की एक चमहोती है। अनीकिनी - तीन चमू की एक अनीकिनी होती है। .
अक्षोहिणी - अनीकिनी की गणना के अनुसार दस अनीकिनी की एक अक्षोहिणो होतो है । इस प्रकारण अक्षोहिणी में रथ इक्कीस हजार आठ सौ सत्तर, हाथी इक्कीस हजार आठ सौ सत्तर, पदाति एक लाख नौ हजार तीन सौ पचास, घोड़े पैसठ हजार छ: सौ चौदह होते हैं । हरिवंशपुराण के अनुसार जिसमें नौ हजार हाथी, नौलाख रथ, नौ करोड़ घोड़े और नौ सौ करोड़ पैदल सैनिक हो उसे एक अक्षौहिणी कहते हैं जरासन्ध के पास इस प्रकार की अनेक अक्षौहिपी सेना थी।
सैनिक प्रयाण - किसी विशेष अवसर पर नगर से बाहर निकलती हुई सैना को शोमा महानन्दी के समान होती थी | सेना की रक्षा के लिए सेनापति को नियुक्त किया जाता था। सबसे पहले घोड़ों का समूह जाता था उसके पीछे रथ चलता था, हाथियों का समूह बीच में जाता था और पैदल सैनिक सब जगह चलते थे। चतुरंगणी सेना के साथ देव और विद्याधर चलते थे। इस क्रम में अन्यत्र व्यतिक्रम दृष्टिगोचर होता है। 36वें पर्व में सबसे आगे पैदल सैनिक, उससे कुछ दूर घोड़ों का समूह, उससे कुछ दूर हाथियों का समूह, सेना के दोनों और रथों का समूह तथा आगे पीछे और ऊपर विद्याधर तथा देवों के चलने का उल्लेख किया गया है । शत्रु समूह के पराक्रम को नष्ट करने वाला तथा दूसरे के द्वारा अलंघनीय चक्ररस्न और शत्रुओं को दण्डित करने वाला दण्डरल चक्रवर्ती की सेना में सबसे आगे रहता था दण्ड रत्न को आगे कर सेनापति सबसे आगे जाता था । आगे चलने वाला दण्डरल सब मार्ग को राजमार्ग के समान विस्तृत और सम करता जाता था। इस प्रकार सेना स्खलित न होती हुई जाती थी । राजाओं और सैनिकों के साथ उनकी स्त्रियां भी जाती थी ।
चन्द्रप्रभचरित से ज्ञात होता है कि प्रयाण के समय पटह की ध्वनि की जाती थी, जिससे समस्त सैनिकों को चलने की सूचना प्राप्त हो जाती थी । पुर के बाहर गोपुर से निकलते समय