Book Title: Jain Rajnaitik Chintan Dhara
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Arunkumar Shastri

View full book text
Previous | Next

Page 134
________________ 124 3. श्रेणीवल- यदि विजिगीषु को यह विश्वास हो कि मेरे पास श्रेणीवल इतना अधिक है कि उसको राजधानी की रक्षा में लगाया जा सकता है और शत्रु के साथ युद्ध करने के समय भी उसको साथ लिया जा सकता है अथवा सफर कम है, मुकाबले को सेना भी प्रायः श्रेणोबल के साथ युद्ध करने योग्य है अथवा शत्रु तृष्णायुद्ध (मन्त्र) अथाका प्रकाशयुद्ध (ध्यायाम) से मुकाबला करना चाहता है अथवा दण्ड से डरा हुआ होने के कारण शत्रु अपनी सेना को किसी प्रकार दूसरे राजा के अधीन करके युद्ध करने की सोच रहा है, ऐसी स्थिति में एवं ऐसे अवसरों पर श्रेणीबल को साथ लेकर युद्ध करना चाहिए। 4.अरण्यबल - यदि विजिगीषु राजा यह समझे कि गन्तव्यस्थान को बताने के लिए पथ प्रदर्शक की आवश्यकता होगी अथवा आटविक सेना शत्रु की युद्धभूमि में लड़ने योग्य आयुधों की शिक्षा में निपुण है अथाव विजिगीषु की आज्ञा बिना ही आदक्षिक सेना शत्रु सेना के साथ युद्ध में प्रवृत्त हो सकेगी, जैसे एक बिल्वफल को दूसरे बिल्वफल के साथ टकराकर फोड़ा जाता है वैसे ही शत्रु सेना से आटविकसेना ही मुठभेड़ करने में समर्थ है अथवा शत्रु भी आटविक सेना को लेकर ही युद्धभूमि में उतर रहा है अथवा शत्रु के अल्प अनिष्ट के लिए अरण्य सेना ही उपयुक्त होगी । ऐसी स्थितियों एवं ऐसे अवसरों पर आटविक (अरण्य) सेना को लेकर ही युद्ध करना चाहिए। ___5. मित्रवल - यदि विजिगीषु राजा यह समझे कि उसका मित्रबल इतना मजबुत है कि यह राजधानी की रक्षा करने में और शत्रु पर चढ़ाई करने में भी समर्थ है अथवा सफर भी कम है, तृष्णीयुद्ध की अपेक्षा वहाँ प्रकाशयुद्ध ही अधिक होगा, जिससे क्षय, व्यय की कप सम्भावना है अथवा शत्रु सेना या शत्रु के देश में सभी आटविक सेना या मित्रसेना को पहिले अपनी मित्र सेना से भिड़ाकर फिर अपनी सेना से लड़ाऊंगा अथवा इस युद्धादि कार्य में मित्र का तथा अपना सपान प्रयोजन है, इस कार्य की सिद्धि मित्र के हाथ में है अथवा अपने समीपस्थ अन्तरंग मित्र का अवश्य ही उपकार करना है अथवा अपने मित्र से द्रोह रखने वाली सेना (दृष्य सेना) को शत्रु सेना के साथ भिड़ाकर मरवा डालूंगा, ऐसे अवसरों या ऐसी स्थिति में मित्रसेना को युद्ध में साथ ले जाना चाहिए। 6. दुर्गरल - दुर्ग के अन्तर्गत रहने वाली सेना । द्विसन्धान महाकाव्य के टीकाकार नेमिचन्द्र के अनुसार राजधानो की सेना को मोल तथा पैदल सेना को भृतक कहते हैं। श्रेणीबल के इन्होंने अठारह पेद किए हैं - सेनापति, माणक, राजश्रेण्ठी, दण्डाधिपति, मन्त्री, महत्तर, तलवर, चारवर्ण, चतुरंग सेना, पुरोहित, आमात्य और महामात्य । जंगल में रहने वाली सेना आरण्य, धूलि कोटपर्वतादि पर स्थित सेना दुर्गसेना तथा मुहृत् सेना मित्र सेना कहीं जाती है । नीतिवाक्यामृत में सेना के छह भेद बतलाए गए हैं - 1, मौलबल - वंशपरम्परा से चली आई प्रामाणिक, विश्वासपात्र पैदल सेना । 2. मृत्य बल - सामान्य सेवक ।। 3. धृत्यक बल - अधिकारी सेना । 4. श्रेणीबल । 5. पित्रयल । 6. आटविक। इन छह प्रकार की क्रमश: पहले-पहले की सेना को युद्ध में लगाना चाहिए। उपर्युक्त प्रकार की सेनाओं के अतिरिक्त सातवें प्रकार की औत्माहिक सेना भी होती है, जो विजिगीषु की

Loading...

Page Navigation
1 ... 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186