Book Title: Jain Rajnaitik Chintan Dhara
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Arunkumar Shastri

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Page 136
________________ 126 बोड़ों की कसामसी देखने योग्य होती थी । हयों के महावतों को वे कारण झुकाकर निकलना पड़ता था तथा पताकायें (केतु) झुका झुकाकर निकाली जाती थी घोड़ों की टापों से उड़ी हुई धूलि से आकाश छिप जाता था। घोड़े इतने शक्तिशाली होते थे कि उन्हें दोनों हाथों से रास कसकर रोका जाता था । हस्तिपद (महावत ) की डिण्डिम ध्वनि से लोग सचेत होकर इधर-उधर हट जाते थे । मस्त हाथी कुपित और निडर दृष्टि डालते हुए चले जाते थे । रथों के पहियों से पृथ्वी खुरचकर ऐसी लगने लगती थी मानों उसे जोत डाला गया हो" । रथों के शब्द से दिशायें बहिरी हो जाती थी। लोहे का कवच पहनने के कारण नीले रंग की दिखाई पड़ने वालो सेना राजा के आस-पास रहती थी। मौलबल को राजा मध्य में रखता था और आटविक सेना को सबसे आगे रखता था। मध्य में प्रबल सेना सहित सामन्तों को रखा जाता था। राजा के पीछे युवराज, युवराज के पीछे अन्य कोई बड़ा राजा चलता था और चतुरंग सेना से युक्त अन्य राजा लोग राजा को घेरकर चलते थे। रनिवास भी साथ चलता था भार ढोने के लिए कुलियों" (वैवधिकों) कैटों तथा बैलगाड़ियों का प्रयोग किया जाता था राजा श्री वर्मा की सेना का एक कैंट हाथी से डरकर कर्णकटु शब्द करता हुआ, लम्बी गर्दन किए बोझा फेंककर भागा और इस तरह नट के समान उसने हास्यरस की अवतारणा की। सेना के प्रस्थान करने पर भीड़-भाड़ में जनता को हानि भी उठानी पड़ती थी । वीरनन्दी ने उसका सच्चा चित्र खींचा है - एक ग्वालिन जा रही थी। अचानक हाथी के आ जाने से डर के मारे वह हिल उठी। सिर पर से बड़ा भारी दही का पात्र (मटका ) गिरकर फूट गया। क्षण भर खड़ी खड़ी वह इस हानि के लिए सांच करती रही और उसके बाद सड़क पर से लौट गई। हाथी की फुफकार से बिचककर राह में बैल भागे तो शकट (छकड़े) के दोनों घुरे टूट गए। बड़े लाभ के लिए घुमते हुए बनिए के घी के घड़े उसके मन के साथ ही फूट गए ” । । - सैनिक प्रमाण के समय देशवासी आपस में चर्चा करते थे यह प्रभु का सुन्दर अन्तःपुर है, यह मदोन्मत्त हाथियों की घटा है यह तेज घोड़ा है, यह ऊँट है, यह देदीप्यमान गणिका है और यह मार्ग में राजाओं की पंक्ति से घिरा हुआ पुत्रसहित प्रजापति है। इससे स्पष्ट है कि गणिकायें भी साथ में चला करती थी। मार्ग में धान्य वगैरह कूटकर साफ करते हुए किसान गौरस वगैरह भेंट करते थे । सैन्य शिविर - बहुत सारा रास्ता पार करने के बाद विश्राम के लिए बीच में शिविर लगाए जाते थे। शिविर के चारों और दूष्यकुटी” (तम्बू) और विस्तृत पटमण्डप बनाए जाते थे । तम्बुओं के चारों और कटीली बाडियों लगाई जाती थीं 1 स्कन्धावर (शिविर) के बाहर अनेक आवास (डेरे) बने होते थे, जहां पर घोड़ों के प्लान आदि (पर्याणादि) लटका दिए जाते जाते थे* । शिविर में प्रवेश करने के लिए एक बढ़ा दरवाजा (महाद्वार) बनाया जाता था । शिविर में एक बड़ा बाजार लगाया जाता था, जिसको तोरण और ध्वजा आदि से अच्छी सजावट को जाती थी। राजा का आँगन रथ, घोड़े, हाथी, सामन्त, कर्मचारी (नियोगी), द्वारपाल तथा अन्य अनेक निधियों से भरा रहता था, जिसे देखकर राजा को भी कुछ-कुछ आश्चर्य होता था । राजा के सिन्निवेश की रचना स्थपति करता था। जिस समय आवस्थों (तम्बुओं) में मनुष्य की भीड़ का क्षोभ शान्त हो जाता था घोड़ों का समूह जल पीकर पटमण्डप में इच्छानुसार वास खाने लगता था, हाथी के समूह सरोवर

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