Book Title: Jain Rajnaitik Chintan Dhara
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Arunkumar Shastri

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Page 132
________________ 122 आचार्य सोमदेव के अनुसार अश्वबल सेना का चलता फिरता (जङ्गम भेद है" | जिस राजा के पास अश्वसेना प्रधानता से विद्यमान है, उस पर युद्धरूपी गेंद से क्रीड़ा करने वाली लक्ष्मी प्रसन्न होती है और दुरषी शत्रु भी निकटवर्ती हो जाते हैं 1 इसके द्वारा यह आपत्ति में समस्त मनोरथ प्राप्त करता है । शत्रुओं के सामने जाना, वहां से भाग जाना, उन पर आक्रमण करना, शत्रुसेना को छिन्न छिन्न कर देना ये कार्य अश्वसेना द्वारा सिद्ध होते हैं जो विजिगीधु जात्यश्व पर आरूढ़ होकर शत्रु पर आक्रमण करता है उसकी विजय होती है तथा शत्रु उस पर प्रहार नहीं कर सकता। जात्यश्व के 9 उत्पत्तिस्थान है" |(1) सर्जिका (2) स्वस्थलाग्गा (3) करोखरा (4) गाजिंगाणा (5) केकाणा (6) पुष्टाहारा (7) गातारा (8) सादुपारा (9) सिन्धुपारा । 3. रथसेना - जब धनुर्विद्या में प्रवीण योद्धा रथारूढ़ होकर (शत्रु पर) प्रहार करते हैं सब राजाओं के लिए क्या असाध्य रह जाता है ? अर्थात् कुछ भी असाभ्य नहीं रह जाता है । रथों के द्वारा नष्ट-भ्रष्ट की हुई शनुसेना आसानी से जीत जाती है । रथों पर सवार योद्धाओं के सिर पर मुकुट बंधा रहता था। वे अपने शरीर को कवच द्वारा सुरक्षित रखने का यत्न करते थे तथा उनका प्रमुख अस्त्र धनुष, बाण होता था" रथ अनेक प्रकार की चित्रकारी से विभूषित होते थे। उन पर उत्तम रत्न तथा सोने का जड़ाव होता था तथा हिलती हुई चमकती हुई छोटी-छोटी बजाओं को शोभा अनुपम होती थी। 4. पदाति सेना - हस्ति, अश्व तथा रथमय सेना के आगे पदातिसेना चलती थी। 5.सप्ताङ्ग सेना- हरिवंशपुराण में हाथी, घोड़ा, रथ, पैदल सैनिक,बैल, गन्धर्व और नतंकी इन सात प्रकार को सेनाओं का उल्लेख मिलता है। 38 वें सर्ग में भगवान् नेमिनाथ के जन्मोत्सव के समय देव, वृषभ, रथ, हाथी, गन्धर्ष और नर्तकी इन सात प्रकार की सेना के आने का वर्णन प्राप्त होता है । सबसे पहले देवों की सेना थी, इसने सात कक्षाओं का विभाग किया था और गोल आकार बनाया था। यह स्वाभाविक पुरुषार्थ से युक्त थी और शस्त्र धारण किए हुए थी । इसके पश्चात् वेग में वायु को जीतने वाली घोड़ों की सेना थी । तदनन्तर बेलों को वह सेना चारों ओर खड़ी थी, जो सुन्दर मुख, सुन्दर अण्डकोश, नयनकमल, मनोहर कांदोल, पूँछ,शब्द, सुन्दर शरीर, सारना, स्वर्णमय खुर और सींगों से युक्त था । चन्द्रमा के समान उसको उज्जवल कान्ति थी । वृषभसेना के पश्चात् बलयाकार रथसेना सुशोभित थी । इसके पश्चात् विशालकाय हाथियों को सेना थी । हाथियों को सेना के बाद गन्धर्षों की सेना सुशोभित थी। इसने मधुर मूछना, कोमल वीणा, उत्कृष्ट बांसुरी, ताल का शब्द और सातों प्रकार के स्वरों से संसार के मध्यभाग को पूर्ण कर दिया था । यह सेना, देव, देवाङ्गनाओं से सुशोभित और सबको आनन्दित करने वाली थी। गन्धवों की सेना के बाद उत्कृष्ट नृत्य करने वाली नर्तकियों की वह सेना थी जो नितम्बों के भार से मन्द-मन्द गमन कर रही थी, समस्त रसों को पुष्ट करने वाली थी तथा वलयों से सुशोभित होने के कारण देवों के.मनों को आकर्षित कर रही थी। प्रत्येक सेना में सात-सात कक्षायें थी। प्रथम कक्षा में चौरासी हजार घोड़े, बैल आदि थे। दूसरी तीसरी आदि कक्षाओं में ये क्रमशः दुनेदूने थे। आदिपुराण में हाथी, घोड़ा, रथ, गन्धर्व, नर्तकी, पियादे और बैल के रूप में सात प्रकार की सेना का उल्लेख किया गया है। विशेषकर, हस्ति, अश्व, रथ और पदाति सेना अधिक काम करती थी।

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