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(3) जहाँ पर अनेक प्रकार के धान्य और रसों (बी, तेल आदि) का संग्रह हो। (4) जहां पर धान्य और रसों का प्रवेश तथा निकासी हो। (5) जहाँ वीर पुरुष निवास करते हों। उपर्युक्त लक्षणों से युक्त दुर्ग यथार्थ रूप से दुर्ग है। शेष दुर्ग तो बन्दिशाला के समान है। दुर्ग के भेद - दुर्ग दो प्रकार के होते हैं - (1) स्वाभाविक (2) आहार्य ।
(1) स्वाभाविक दुर्ग - स्वयं उत्पन्न हुए युद्धोपयोगी और शत्रु द्वारा आक्रमण करने के अयोग्य पर्वत, स्वाई आदि विकर खानों को स्वाभाविक दुर्ग कहते हैं।
(2) आहार्य दुर्ग - कृत्रिम उपायों के द्वारा बनाए हुए दुर्ग को अहार्यदुर्ग कहते हैं । दुई के प्रकारान्तर से अन्य दो भेद प्राप्त होते हैं - (1) पर्वतीय दुर्ग (2) निम्न दुर्ग । पर्वतीय दुर्गों के लिए गिरीदुर्ग तथा अन्य के लिए निम्नदुर्ग शब्द का प्रयोग होता था । किन्हीं विशेष अवसरों पर राजा लोग पहाड़ी दुर्गों (गिरि दुर्गों) का आश्रय कर शक्तिशाली शत्रु के विरुद्ध उठ खड़े होते थें । ऐसी दशा में शत्रु को पकड़ना या वश में करना बहुत बड़ी सफलता मानी जातो थी । क्योंकि यह कठिन कार्य था । इस प्रकार स्पष्ट है कि गिरि दुर्ग का विशेष महत्व था । क्षेयपुरी नगर का वर्णन करते हुए गद्यचिन्तामणि में कहा गया है - 'यह पहाड़ी दुर्ग है, यह समझकर कल्याण के अभिलाषी मनुष्य इस नगर की सेवा करते हैं ।
दुर्ग जीतने के उपाय - दुर्ग जीतने के निम्नलिखित उपाय हैं |
(1) अधिगमन - सामादि उपायपूर्वक शत्रु दुर्ग पर शस्त्रादि से सुसज्जित सैन्य प्रविष्ट कराना।
(2) उपजाप - विविध उपाय द्वारा शत्रु के आमात्य आदि अधिकारियों में भेद करके शत्रु के प्रतिद्वन्द्वी बनाना।
(3) चिरानुबन्ध - शत्रु के दुर्ग पर सैनिकों का चिरकाल तक घेरा डालना । (4) अवस्कन्द - शत्रु दुर्ग के अधिकारियों को प्रचुरसम्पत्ति और मान देकर वश में करना। (5) तीक्षणपुरुष प्रयोग - घातक गुप्नरों की शत्रु राजा के पास भेजना।
दुर्गन होने से हानि - प्राचीन काल में दुर्ग राजाओं की सुरक्षा के सुदृढ़ सायन थे, जो यथास्थान रखे हुए यन्त्र, शस्त्र, जल, जौ, घोड़े और रक्षकों से भरे रहते थे बलवान शत्रु का मुकाबला दुर्गों का आश्रय कर किया जा सकता था, क्योंकि अपने स्थान पर स्थित खरगोश भी हाथी से बलवान हो जाता है | दुर्गविहीन देश किसके तिरस्कार का स्थान नहीं होता है ? अर्थात् सभी के तिरस्कार का पात्र होता है। दुर्गशून्य राजा का समुद्र के मध्य जहाज से गिरे हुए पक्षी के समान कोई आश्रय नहीं है।
दुर्ग की सुरक्षा के उपाय - जिसके हाथ में राजमुद्रा नदी गई हो अथवा जिसकी मले प्रकार परीक्षा न की गई हो, ऐसे व्यक्ति को अपने दुर्ग में प्रवेश नहीं देना चाहिए। इतिहास से ज्ञात होता है कि हूणदेश के नरेश ने अपने सैनिकों को विक्रययोग्य वस्तुओं को धारण करने वाले व्यापारियों के वेष में दुर्ग में प्रविष्ट कराया और उनके द्वारा दुर्ग के स्वामी को मरवाकर चित्रकूट देश पर अपना अधिकार कर लिया । किसी शत्रु राजा ने कांची नरेश की सेवा के बहाने भेजे हुए शिकार खेलने में प्रवीण होने से तलवार धारण करने में अभ्यस्त सैनिकों को उसके देश में भेजा, जिन्होंने दुर्ग में प्रविष्ट होकर भद्र नाम के राजा को मारकर अपने स्वामी की कांची देश का अधिपति बनाया।