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71 का अवलम्बन जीवनधरस्वामी के मामा गोविन्दराज ने किया था । यद्यपि वे पापी काष्ठांगार क विनाश हृदय से चाहते थे, फिर भी अनुकूल समय को प्रतीक्षा करते हुए उन्होंने काष्ठांगार के साथ प्रत्यक्ष रूप से अपने स्नेहभाव प्रदर्शन करने में किसी प्रकार की कमी न की। जिसके प्राणों के वे प्यासे थे, उसके ही पास उन्होंने भेंट भेजकर बाह्य रूप से सम्मान का भाव प्रदर्शित किया था (छ. चू. 10/22, अनेकान्तं वर्ष 5 किरण 3-4 अ मई 1942 पृ. 148 149 ) मुद्राराक्षस में राजनीति की विचित्रता इन शब्दों में वर्णित की गई है कभी तो उसका श्वास स्पष्ट प्रतीत होता है, कभी वह गहन हो जाती है और उसका ज्ञान नहीं हो पाता, प्रयोजनवश कभी वह सम्पूर्ण अंग युक्त होती है और कभी अत्यन्त सूक्ष्म हो जाती है, कभी तो उसका बीज ही विनष्ट प्रतीत होता हैं और कभी वह बहुत फलवाली हो जाती है। अहो ! नीतिज्ञ की नौति देव के सदृश विचित्र आकार वाली होती है। (मुद्राराक्षस 5 ( 3 ) 1
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20. अनीतिपूर्ण आचरण का परित्याग अनीतिपूर्ण आचरण का परिणाम बुरा होता है, इस बात का निश्चय इससे होता है कि राजा को धोखा देने वाला काष्ठांगार जीवन्धर महाराज के द्वारा मारा गया। इस पर आचार्य ने कहा है- 'स्वयं नाशीहि नाशक:' ( रु. चू. 10/50) अन्य का विनाश करने वाले का स्वयं नाश होता है। इस पृथ्वी का शासन दुर्बल व्यक्तियों द्वारा नहीं हो सकता, यह वसुन्धरा वीरों के द्वारा भोगने योग्य है (छ. चू. 10/30 ) । अत्याचारी काष्ठांगार ने प्रजा का उत्पीड़न किया था, उसने बलात् प्रजा का खून चूसा था, इस कारण महाराज जीवन्धर ने राज्य का शासन सूत्र हाथ में लेते ही 12 वर्ष के लिए पृथ्वी को कर रहित कर दिया था। इसका कारण कविवर यह बतलाते हैं कि भैंसों के द्वारा गंदा किया गया पानी शीघ्र निर्मल नहीं होता (छ. . 10/57)
21. धार्मिकता - अनावश्यक हिंसा आदि से भय रखने के कारण क्षत्रिय व्रती माने गए है ( छ. चू. 10/38 ) । धार्मिक नरेश सफलता प्राप्त करने के अनन्तर सफलता के मूल कारण वीतराग सर्वज्ञ परमात्मा के चरणों की आराधना को नहीं भूलते हैं, इसी बात को जानने के लिए जीवन्धर स्वामी के द्वारा युद्ध में विजय होने के पश्चात् राजपुरी में जाकर जिनभगवान् के अभिषेक करने का वर्णन किया गया है, क्योंकि भगवान् की दिव्य समीपता होने पर सिद्धियों बिन बाघा के हो जाती हैं (छ. चू. 10/41 ) 1
राजा के दोष पद्ममचरित में दुराचारी राजाओं का भी उल्लेख हुआ है । उदाहरण के लिए राजा सौदास, जो कि नरमांस में अत्यधिक आसक्त होने के कारण प्रजा द्वारा नगर से निकाल दिया गया था । राजा वज्रकर्ण को दुराचारी सिद्ध करने के लिए उसे अत्यन्त क्रूर, इन्द्रियों का वशगामी, मूर्ख, सदाचार से विमुख भोगों में आसक्त, सूक्ष्म तत्त्व के विचार से शून्य तथा भोगों से उत्पन्न महागर्व से दूषित कहा गया है। आदिपुराण के अनुसार दोषयुक्त राजाओं में प्राय: : निम्नलिखित दोष होते हैं -
1. सदातृष्णा से युक्त होना ।
2. मूर्ख मनुष्यों से घिरा होना ।
3. गुरुओं ( पूज्यजनों) का तिरस्कार करना 14. अपनी जबदस्ती दिखलाना ।
5. अपने गुण तथा दूसरे के दोषों को प्रकट करना* ।
6. अधिक कर लेना ।
7. अस्थिर प्रकृति का होना ।
B. दूसरे के अपमान से मलिन हुई विभूति को धारण करना ।