Book Title: Jain Rajnaitik Chintan Dhara
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Arunkumar Shastri

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Page 110
________________ 100 का निश्चय करना, निश्चित कार्य को दृढ़ करना और किसी कार्य में सन्देह उत्पन्न हो जाने पर विचारविमर्श द्वारा उस संशय का निराकरण करना, आंशिक कार्य को पूरी तरह विचारना इत्यादि सभी बातें मन्त्रियों के सहयोग से ही पूरी की जा सकती हैं, इसलिए विजिगीशु राजा को अत्यन्त अजिमार और पर्याप्त मानवी पवित मान लेटर र टिना डरना चाहिए'" । घनन्जय के अनुसार जिस कार्य में योजना में सज्जनों का सहयोग हो, दण्डनीति द्वारा जिसका रक्षण हो तथा उच्चस्थान पर गत शुभग्रहों की जिस पर दृष्टि हो वह योजना लक्ष्मी मन्दिर के प्रवेशद्वार के समान होती है। जो ऐसी योजना में मुढ़ है, उसे नीतिकार दिग्भ्रान्त ही कहते है | प्रारम्भ न करने से, प्रारम्भ करके भी अनुभवहीनता के कारण, चातुरी होने पर भी स्थान परिवर्तन के कारण अबसर बीसा कार्य अथवा यौवन पुनः हाथ नहीं आता। अतएव प्रवृत विषय पर अर्थसाधक अर्थ, अनर्थकारी अर्थ, अर्थबाधक अनर्थ और अनर्थकारी अनर्थ इन चार दृष्टियों से विचार करना चाहिए । मन्त्रणा करते समय ध्यान देने योग्य वातें - पन्त्रणा करते समय न बहुत थोड़ा बोलना चाहिए, न बहुत अधिक बोलना चाहिए. थोड़ा कहे जाने पर मूखों की समझ में नहीं आता, बहुत बोलना विशेषज्ञ विद्वानों को उद्वेजित कर देता है,अत: समुचित सुझावरुप अर्थ से परिपूर्ण वाणी का प्रयोग करना चाहिए । ऐसी वाणी विद्वानों की युक्ति के समान होती है । विचारणीय विषयों में प्रत्येक जो सामने आता है, उसको एक एक ही दृष्टि से ऐसा बैठाना चाहिए जो भविष्य में इष्टसाधक हो, जैसे कि सामने आये हुए ग्रास एक मुख से ही एक-एक करके लेने से पथ्य होते हैं अथवा एक साथ उपस्थित विचारणीय विषयों को अनेक अवयवों की दृष्टि से वैसे विचारना चाहिए जैसे विविध दृष्य भोगों को इन्द्रियों से ग्रहण करते हैं | जो व्यक्ति कार्य के प्रारम्भ में ही नोति से काम नहीं लेता है, उसके राज्यादिभोग सरस नहीं होते हैं, इसलिए विधाता ने लोगों के पुख में जिव्हा बनाई है, पेट में जिम्हा नहीं बनाई है।47 । यदि प्रतीक्षा को जा सकती हो तो समस्त आरय कार्य को थोड़ा करके ही हाथ लगाना चाहिए, जैसे गाय परमप्रिय भोजन को एक बार में ही पूरा तथा जी भरकर खाकर बाद में धीरे धीरे जुगाली करती है कौन ऐसा व्यक्ति है, जिसके अत्यन्त मित्र होते हों अथात्रा जिसके सर्वथा शत्रु ही होते हों, अतएव जिसका आरम्भ करने से मित्रता का अतिक्रमण न होता हो अथवा शत्रु समूह के साथ वैर का अपलाप न होता हो वहीं कार्य करना चाहिए143 ।मन्त्रणा पौरुष के पुट से व्याप्त तथा अर्थ में महान् होना चाहिए । बहुत वचन और थोड़े अर्थ वारली वाणी नहीं बोलना चाहिए, क्योंकि थोड़े से दर्पण में भी बहुत बड़े पदार्थ को परछाई दिख जाती हैं | मन्त्री को विश्वस्त होना चाहिए यदि मन्त्री फूट जाय तो पराजय का सामना करना पड़ सकता हैं। मन्त्रणा करने का स्थान - मन्त्रणा एकान्त स्थान में होनी चाहिए तथा दृढ़ता और गम्भीरता से युक्त होनी चाहिए । मन्त्रणा करने के लिए अलग एकान्त गृह होता था, जिसे मन्त्रगृह कहते थे। यहाँ युवराज तथा मन्त्रियों से राजा बातचीत करता था। कौटिल्य अर्थशास्त्र में कहा हैजिस स्थान पर बैठकर मन्त्रणा को जाय, वह चारों ओर से इस प्रकार बन्द होना चाहिए, जिससे वहाँ पक्षी तक न झौंक सके और कोई शब्द बाहर सुनाई न दे, क्योंकि अनुश्रुति है कि पुराकाल में किसी राजा की गुप्तमन्त्रणा को तोता और मैना ने सुनकर बाहर प्रकट कर दिया था। इसी प्रकार कुत्ते और अन्य पशुपक्षियों के विषय में भी सुना जाता है । इसलिए राजा की आज्ञा के बिना कोई

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