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माल बनाने वाले विविध प्रकार के कारखानों का प्रधान निरीक्षक तथा संचालक था। इसके अधीन बहुत से कर्मचारी थे ।
मन्त्रिपरिषदाध्यक्ष - मन्त्रि परिषद का अध्यक्ष ।
दण्डपाल - वरांगचरित में दण्डपाल से ही मिलते जुलते दो शब्द दण्डनाथ और दण्डनायकर आये हैं तथा प्रसंगानुसार इन्हें युद्ध के लिए तैयार होने तथा गुमे हुए युवराज को खोजने के लिए कहा गया है। सत्यकेतु विद्यालंकार के अनुसार इसका काम सेना की स्थिति सम्पादित करना तथा सेना को सब आवश्यकताओं को पूरा करना एवं उसके लिए सब भाँति का प्रबन्ध करना है | ए. एल, बाशम के अनुसार दण्डपाल स्वयं राजपाल भी होते थे ।
दुर्गपाल - दुर्गों का अध्यक्ष ।
अन्तपाल- राज्य की सीमा के दुगौ का संरक्षण करने वाला अधिकारी अन्तपाल कहा जाता था । जनपद की सीमा पर अन्तपाल की अध्यक्षता में द्वारभूत स्थानों का निर्माण होता था |
आटविक - यह जंगलों तथा जंगली जातियों की देखरेख करने वाला प्रधान अनिकारो था । सम्भवत: इसी के लिए रांगचरित में अटवीश्वर शब्द का प्रयोग हुआ है। इसके विपरीत होने पर भली भाँति के सम में करने या नाटकाने का काम किया जाता था !
श्रेणियों का महत्व - प्राचीन भारत में राजा कानून का निर्माता नहीं था, वह केवल दण्डका के रूप में धर्म सम्बन्धी नियमों का पालन और व्यवस्था कराता था । मित्र-भिन्न श्रेणियों और जातियों के लोग स्वयं अपने लिए नियम बनाते थे । कृषि, उद्योग धन्धे, वाणिज्य और व्यवहार के क्षेत्र में संगठित श्रेणियाँ स्थानीय स्वशासन का उपभोग करती थी।वशिष्ट ने इस रोचक प्रकरण में बतलाया है कि लेखों की प्रमाण सामग्री का विरोध होने पर स्थानीय श्रेणियों की बात का विश्वास मानना चाहिए2 (16/15)
स्थपति - आजकल के इंजीनियर के समान तकनीकी ज्ञान में कुशल व्यक्ति को स्थपति कहा जाता था । यह पुल बांधने आदि का उपाय करता था।
राजश्रेष्ठी - राजश्रेष्ठी एक प्रमुख पद था जो बुद्धि और वैभव से युक्त किसी वणिक को दिया जाता था। राजा कभी-कभी तन्त्र (अपने राष्ट्र को रक्षा करना) और अवाय ( परराष्ट्र से सम्बन्ध का विचार करना) इन दोनों को बड़ा भारी भार राजश्रेष्ठी को सौंपकर निद्वन्द धर्म और काम पुरुषार्थ का अनुभव करता था। घरांगचरित में इसे प्रधान श्रेष्ठी कहा गया है । (वरांगचरित 11157)|
पीठमध - विश्वनाथ ने साहित्यदर्पण में नायक के बहुदूरव्यापी चरित में नायक के सामान्य गुणों से कुछ न्यून गुण वाले नायक के सहायक को पीतमदं कहा है । जैसे रावण के सुग्रीव ।
अन्तःपुर के अधिकारी - अन्तःपुर की शुद्धता का पूरा-पूरा ध्यान रखा जाता था और इस हेतु दासी, भृत्य के रूप में बौने, कुबड़े, वृद्धपुरुष तथा स्त्रियों में धात्री और परिचारिकायें नियुक्त होती थीं । अन्तःपुर में एक महामात्य को नियुक्ति की जाती थी, जिसे अन्त:पुरमहत्तर कहते थे। इसके अतिरिक्त कंचुकी भी नियुक्त किया जाता था । अन्त:पुर की स्त्रियों में रहकर अंगरक्षा का कार्य करने वाले वृद्ध व्यक्ति को कंचुकी कहा जाता था। कंचुकी को सौविदल्ल" भी कहा जाता था।