________________
114
जाता है, न कि राजा का शरीर" । जिसके हाथ में धन है, वह जयशील होता है" । निर्धन को उसकी पत्नी भी छोड़ देती है, अन्य की तो बात ही क्या है? पुरुष कुलीन और सदाचारी होने से ही मनुष्य को श्रेष्ठ या सेवायोग्य नहीं समझते हैं, बल्कि धन के कारण ही उसे श्रेष्ठ मानते हैं। जिसके पास प्रचुर धन विद्यमान है, वहीं महानू और कुलीन कहलाता है। जो आश्रितों को सन्तुष्ट नहीं कर पाता हैं, उसकी निरर्थक कुलीनता और बड़प्पन से कोई लाभ नहीं है। उस तालाब के विस्तीर्ण होने से क्या लाभ है, जिसमें पर्याप्त जल नहीं, इसी प्रकार कुलीनता आदि से बड़ा होने पर भी यदि कोई दरिद्र है तो उसका बड़प्पन व्यर्थ है" । जो मनुष्य अपने मूलधन की व्यापार आदि द्वारा वृद्धि नहीं करता है और उसे व्यय करता है, वह सदा दुःखी होता है"। धनी लोगों को यति लोग भी चाटुकारी करते हैं" । अतः गृह में आई हुई सम्पत्ति का कभी भी किसी कारण से तिरस्कार नहीं करना चाहिए, क्योंकि जिस समय लक्ष्मी का होता है की निधि व नक्षत्र शुभ और ग्रह कलिष्ठ माने जाते हैं"। जिस प्रकार हाथो से हाथी बाँधा जाता है, उसी प्रकार धन से धन कमाया जाता है" । दरिद्र मनुष्यसे धन लेना मरे हुए को मारने के समान कष्टदायक है "। संसार में कौन ऐसा मनुष्य है जो धनहीन होने पर लघु न हो" ।
-
कोष का लक्षण जो विपत्ति और सम्पत्ति के समय राजा के तंत्र (चतुरंग सेना) की वृद्धि करता है और उसको सुसंगठित करने के लिए धनवृद्धि करता है, उसे कोश कहते हैं" । कोष के लिए आदिपुराण में 'श्रीगृह' शब्द आया है। मणि, नर्म और काकिणी ये तीन रत्न चक्रवर्ती के श्रीगृह में उत्पन्न होते हैं ।
कोषाधिकारी (1) आदायक (आय जमा करने वाला) (2) निबन्धक ( हिसाब लिखने वाला) (3) प्रतिबन्धक (वस्तुओं पर राजकीय मुहर लगाने वाला) (4) नीवीग्राहक (राजकीय द्रव्यको कोष में जमा करने वाला और (5) राजाध्यक्ष उक्त चारों की देखरेख करने वाला पुरुष ये पाँच कोषाधिकारी (करण) हैं। आमदानी में उपयुक्त खर्च करने के पश्चात् बची हुई और जाँच पड़ताल पूर्वक कोषागार में जमा की हुई सम्पत्ति को नीवी कहते हैं।
-
-
कोषविहीन राजा की स्थिति पुरुष का पुरुष दास नहीं है, अपितु पुरुष धन का दास है" । जो राजा अपने राज्य में धनसंग्रह नहीं करता और अधिक धन व्यय करता है, उसके यहाँ सदा अकाल रहता है" क्योंकि नित्य स्वर्ण का व्यय होने पर मेरु भी नष्ट हो जाता है"। जो राजा सैनिकों का भरणपोषण करने के लिए समय पर ( धान्यादिका) संग्रह नहीं करता है. उसके राज्य कर्मचरियों को अत्यधिक आनन्द होता है (क्योंकि ये लोग धान्यादि खरीदकर उसे तेज भाव में बेच देते हैं और बहुत सा धन हड़प लेते हैं) तथा राजा का विशाल खजाना नष्ट हो जाता है" ।
आय और व्यय - द्रव्य (सम्पत्ति) की उत्पत्ति के साधन (कृषि, व्यापार, कर आदि) कां आय कहते हैं" । स्वामी की आज्ञानुसार श्रम व्यय करना व्यय है"। जिस प्रकार मुनि कमण्डलु में जल शीघ्रता से ग्रहण होता है, परन्तु उसका व्यय (टौटी से) धीरे धीरे होता है, उसी प्रकार आय अधिक और व्यय कम करना चाहिए" । जो मनुष्य आय का विचार न कर अधिक व्यय करता है, वह कुबेर (वैश्रमण) के समान (असंख्य धन का स्वामी) होकर भी श्रमण (भिक्षुक ) के समान आचरण करता है । राजा नीवीग्राहक (राजकीय धन को कोष में जमा करने वाला) .से उस पुस्तक (वही, रजिस्टर) को जिसमें राजकीय द्रव्य के आय व्यय का हिसाब लिखा है,
1