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102 दूर्ग आदि पर आने वाले अथवा आए हुए विघ्नों का प्रतीकार करना यह मन्त्र का विघ्न प्रतीकार नाम का चौथा अंग है।
(5) कार्यसिद्धि - उन्नति, अवनति और समवस्था यह तीन प्रकार की कार्यसिद्धि है। जिन समादि उपायों से विजिगीषु (जीतने का इच्छुक) राजा अपनी उन्नति, शत्रु को अवनति या दोनों की समवस्था प्राप्त हो, यह कार्यसिद्धि नामकपाधवा अंग है। उधपदाधिकारी
अठारह श्रेणियों के प्रधान - वरांगचरित में अठारह श्रेणियों के प्रधानों का अनेक स्थानों पर उस्लेख हुआ है । कौटिल्य अर्थशास्त्र में इन अटारह श्रेणियों के प्रधानों का नाम इस प्रकार दिये गये हैं -
__1-मंत्री,2- पुरोहित, समाति, 4- युक्सज, 5-बजारिक,6-अन्तर्वशिक,7-प्रशास्ता, B-समाहर्ता, 9-सन्निधता, 10-प्रदेष्टा, 11-नायक, 12-पौरच्यावहारिक, 13-कार्मास्तिक, 14मन्त्रिपरिषदाध्यक्ष, 15-दण्डपाल, 16-दुर्गपाल, 17-अन्तपाल, 18-आटत्रिक।
मन्त्री - सामान्यतया मन्त्री के लिए, अमात्य और मन्दि शब्दों का प्रयोग होता था किन्तु विशेषतया मन्त्री और अमात्य दो एथक पृथक पर होते थे वरांगचरित में मन्दिवर्ग और अमात्य को पृथक पृथक गिनाया है। कौटिल्य और सोमदेव के वर्णन के आधार पर ज्ञात होता है कि अमात्य पन्त्रिपरिपद के सदस्य होते थे किन्तु उनको सत्रागा का अधिकार प्राप्त नहीं था । मन्त्रणा केवल सर्वगुणसम्पन्न, पुर्णरुपेण परीक्षित एवं विश्वसनीय मंत्रियों से की जाती थी । मन्त्रिपरिषद के सदस्यों की संख्या तो बहुत होती किन्तु अन्तरंग परिषद में केवल तीन या चार मन्त्री होते थे और उन्हीं के साथ राजा गूढ़ विषयों पर मन्त्रणा करता था । वरांगचरित में राजा धर्मसेन द्वारा अनन्तसेन, चित्रसेन, अजिससेन और देवसेन नामक चार मन्त्रियों को मन्त्रणा हेतु बुलाए जाने का उल्लेख प्राप्त होता है । मन्त्रियों में एक प्रधानमन्त्री (मन्त्रिमुख्य) का भी पद होता था 1 बुद्धिमान मन्त्री के वाक्य कर्तव्य वस्तु के लिए कसौटी के समान होते थे । प्रत्येक मन्त्रो की सलाह मानना आवश्यक नहीं था, क्योंकि प्रत्येक पुरुष की मति भित्र-भित्र होती है । मन्त्री अपनी सम्मति को कहने का स्वामी है, परन्तु उसको करना, न करना स्वामी के अधीन है।
पुरोहित - पुरोहित को राज्य का आधाअंश माना गया है। वैदिक काल से लेकर बाद तक उसका अस्तित्व पाया जाता है । उसे राष्ट्र का रक्षक कहा गया है । वह राजपरिवार और उसके धार्मिक अंश के अतिरिक्त लौकिक विषयों पर भी अपना मत देना था वह राजा और प्रजा के बीच शक्ति का माध्यम था । पुरोहित लोग चेष्टा से हदय की बात समझने वाले और शकुन को जानने वाले होते थे | किसी प्रकार की कोई बाधा उपस्थित होने पर पुरोहित उसके कारण का विचार करता था, क्योंकि बिना विचार किए हुए कार्यों की सिद्धि न तो इस लोक में होती है और न परलोक में होती है ।
एक स्थान पर पुरोहित को दिव्यचक्षु और कार्य का ज्ञाता कहा गया है।' | पुरोहित सपनों का फल जानने वाला भी होता था12 1 पुरोहित प्रयाण आदि के समय राजा के साथ रहता था तथा राजसभा में सम्मानित स्थान पाता था । सामरिक स्थलों पर सेनापति पुरोहित के साथ विचारविमर्श करता था । मंगल कार्य के पहले पुरोहित राजा को आशीर्वाद देकर मंगल द्रव्य धारण कर