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मन्त्री को राजा के लिए दुख देना उत्तम है, किन्तु अकार्य को उपदेश देकर उसका विनाश करना उत्तम नहीं है । जब बच्चा दूध नहीं पीता है तब माता उसके गाल पर थप्पड़ लगाती है. इसी प्रकार मन्त्री को भी राजा की भलाई के लिए भविष्य में हितकारक और तत्काल कठोर व्यवहार करना चाहिए । मन्त्री लोग राजा के दूसरे बुदय होते हैं, अत: उन्हें किसी के साथ स्नेहादि सम्बन्य नहीं रखना चाहिए। राजा द्वारा किया हुआ निग्रह (दण्ड) और अनुग्रह मन्त्रियों द्वारा किया हुआ हो समझना चाहिए । जो मन्त्री राजकार्य में सावधान रहते है, फिर भी उनका कार्यसिदध नहीं होता तो उनका कोई दोष नहीं है, राजा को पूर्वजन्य सम्बन्धी भाग्य का दोष है ।
राजा और मन्त्री का पारस्परिक व्यवहार - मन्त्रियों के प्रति राजा बहुत सम्मान की भावना रखता था। एक स्थान पर मन्त्रणा के लिए बुलाए हुए मन्त्रियों से बातचीत करता हुआ राजा कहता है - हम र राजा) भी नीति में निपुण हो गए. यह आप ही लोगां की महिमा है । दिवम जो पब संसार को प्रकाशित करता है वह सूर्य का ही प्रताप है" । माता पुत्र को अपने कौशल से बढ़ाती है, चतुरता सिखाती है, अप्रमादी होकर रक्षा करती है, यही सब व्यवहार आप लोगों की बुद्धि भी हमारे साथ करती है । जिसके आप (मन्त्रिगण)सदृश गुरु सन्न कार्यों की देखभाल करते हैं वह मैं (राजा) सुमेरु केसपान प्रयोजन ( अत्यधिक कठिन कार्य) आ पड़ने पर भी व्याकुल होने वाला नहीं । यदि अंकुशतुल्य आप जैसे गुरु सिर पर न होता गजसदृश होने के कारण पग पग पर विचलित होने वाले जो हम लोग है. उन्हें कुपथ पर ले जाने से कौन रोके? आप ही लोगों की बुद्धि के सहारे मेरा पराक्रम आगे बढ़ाकर शत्रुओं पर आक्रमण करता है । इसके उत्तर में मन्त्री भी शिष्टाचारपूर्वक राजा से निवेदन करता है- आप ही के प्रसाद से हम ऋद्धि और बुद्धि(मति) के पात्र बने है । अतएव आप ही इस पृथ्वी पर हमारे गुरु, ईश (स्वामी) सुहृद और एक मात्र बन्धु हैं । कार्य को समझने वाले और परम्परा को देखे हुए जो आप लोग हैं, उनके आगे नीतिशास्त्र का थोड़ा सा ज्ञान रखने वाले मुझ जैसे व्यक्ति का लज्जित होना ही स्वाभाविक है।कार्य को समझने वाले के आगे शास्त्रज्ञ का बोलना अच्छा नहीं लगता है तथापि अन्डे अधिकार पर स्थित लोगों का धर्म है कि वे अपनी शक्ति पर प्रभु को सलाह दें। इसी में पड़े चावल की तरह कभी कभी बालक से भी थोड़ी सी अच्छी बात मिल जाती है । इस प्रकार लम्बी बातचीत होती थी। अन्त में राजा हितकर वचन स्वीकार कर लेता था ।
अमात्य और उनका महत्व - जो राजा द्वारा दिया हुआ दान सम्मान प्राप्त कर अपने कर्तवय पालन में उत्साह व आलस्य करने से क्रमश: राजा के साथ सुखी दुखो होते हैं, उन्हें अमात्य कहते है । जब शतरंज का राजा मंत्री के बिना चतुरग सेना सहित होकर भी उसका राजा नहीं हो सकता, तो वास्तविक राजा को तो बात ही क्या है ? अकेला राजा (अमात्य आदि की सहायता के बिना) कार्य को सिद्ध नहीं कर सकता है । जिस प्रकार (रथ आदि का) एक पहिया नहीं चल मक्रता है, उसी प्रकार मन्त्री आदि की सहायता के बिना राज्यशासन नहीं चल सकता है । जिम प्रकार अग्नि ईधन युक्त होने पर भी हवा के बिना प्रज्वलित नहीं हो सकती । उसी प्रकार मन्त्री के बिना बलिष्ठ व सुयोग्य राजा भी राज्यशासन करन में समर्थ नहीं हो सकता है । अमात्य को पद्मचरित में सचिव तथा मन्त्रि" नाम से उल्लिखित किया है । यहाँ इन्हें मत्रकोविद" (मन्त्र ज्ञाता), महाबलवान, (महावला), नीति की यर्थाथता को जानने वाले (नय याथाल्यकेदिना),