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करकृत
से दूर करे " राजकुमार इन्द्रियों के समूह को इस प्रकार जीते कि ये इन्द्रियाँ सब प्रकार से अपने विषयों के द्वारा केवल आत्मा के साथ प्रेम बढ़ायें" । बुद्धिमान् राजकुमार विनय की वृद्धि के लिए सदा वृद्धजनों की संगने शास्त्र से और स्वभाव से ही विनय करना स्वाभाविक विनय है। जिस प्रकार पूर्णचन्द्रमा को पाकर गुरू और शुक्र गृह अत्यन्त सुशोभित होते हैं, उसी प्रकार सम्पूर्ण कलाओं को धारण करने वाले सुन्दर राजकुमार को पाकर स्वाभाविक और कृत्रिम दोनों प्रकार के विनय अतिशय सुशोभित होते हैं 19 । राजकुमार कलावान हों पर किसी को हमें नहीं, प्रताप सहित हो परन्तु किसी को दाह न पहुँचावें जो राजपुत्र विरूद्ध शत्रुओं को जीतना चाहते हैं, उन्हें बुद्धि, शक्ति, उपाय, विजय, गुणों का विकल्प और प्रजा अथवा (मन्त्री आदि) प्रकृति के भेदों को अच्छी तरह जानकर महान् उद्योग करना चाहिए। इनमें से बुद्धि दो प्रकार की होती है एक स्वभाव से उत्पन्न हुई और दूसरी विनय से उत्पन्न" । जिस प्रकार फल और फूलों से रहित आम के वृक्ष पक्षी को छोड़ देते हैं और विवेकी मनुष्य उपदिष्ट मिथ्या आगम को छोड़ देते हैं, उसी प्रकार उत्साहहीन राजपुत्र को विशाल लक्ष्मी छोड़ देती है, यहां तक कि अपने योद्धा, सामन्त और महामात्य आदि भी उसे छोड़ देते हैं ।
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र्धमान चरित में राजकुमार के जिन गुणों का संकेत किया गया है, उनमें राजविद्या का अभ्यास, राजाधिरोहण, घोड़े की सवारी अस्त्र-शस्त्र चलाने की कुशलता, अन्तः स्थित शत्रुओं पर विजय, सौन्दर्य, यौवन, नवीन हृदय, राजलक्ष्मी प्राप्त होने पर मद न होना" नीति, वीरश्री और शक्तिरूप सम्पदा में अधिक होना, अपनी सेवा में संलग्न राजपुत्र, कार्यटिक (वस्त्र व्यवस्थापक) तथा (मन्त्री आदि) मूलवर्ग को वैभवयुक्त" करना प्रमुख हैं। ऐसा राजपुत्र ही अपने पिता को गति, नेत्र तथा कुल का दीपक होता है।
नीतिवाक्यामृत के अनुसार राजा अपने राजकुमार को सर्वप्रथम समस्त प्रकार की बातचीत में निपुण बनाए अनन्तर समस्त लिपियों (भाषाओं ), गणित, साहित्य, न्याय, व्याकरण, नीतिशास्त्र, रत्नपरीक्षा, कामशास्त्रविद्या (प्रहरण) और वाहनविद्या में निपुण बनाए । विद्वान गुरुओं की परम्परा पूर्वक किए हुए शास्त्राभ्यास से शास्त्रों का यथार्थ बोध होता है, जिससे मनुष्य कर्त्तव्यपालन में निपुणता प्राप्त करता है"। जो राजपुत्र कुलीन होने पर भी संस्कारों का अध्ययन और सदाचार आदि सद्गुणों से रहित है उसे शिष्ट पुरुष शरण पर न चढ़ाए हुए रत्न के समान युवराज पद पर आरूढ़ होने योग्य नहीं मानते हैं। व्रत, विद्या और आयु में बड़े पुरुषों के साथ नमस्कारादि नम्रता का व्यवहार करना बिनय है" । जिन राजपुत्रों को साधुपुरुषों ने विनय की शिक्षा दी है, उनका श और वृद्धिगत राज्य (अभ्युदय) दूषित नहीं होता है। पुण्य की प्राप्ति होना, शास्त्रों के रहस्य का ज्ञान होना, शिष्ट पुरुषों द्वारा सम्मान मिलना ये विनय के फल है । जिस प्रकार घुन से खाई हुई लकड़ी नष्ट हो जाती है, उसी प्रकार अविनीत राजकुमार का वंश नष्ट हो जाता है । जो राजकुमार प्रमाणिक विद्वानों की शिक्षा से सम्पन्न किए जाते हैं तथा जिनका सुखपूर्वक लालनपालन होता है, वे पिता से द्रोह नहीं करते हैं”। माता- पिता राजपुत्रों के उत्कृष्ट देव हैं तथा उनकी प्रसन्नता से ही उन्हें शरीर और राज्य की प्राप्ति होती है। जो ( राजपुत्र) माता-पिता का मन से भी अनादर करते हैं, उनसे प्रसन्न होकर समीप में आने वाली लक्ष्मी भी विमुख हो जाती हैं" । अतः राजपुत्र किसी भी कार्य में पिता की आज्ञा का उल्लंघन न करें"। इसके समर्थन में सोमदेव ने क्रम (राजनैतिक ज्ञान) और विक्रम (शूरवीरता) से युक्त राम का दृष्टान्त दिया है, जो पिता की आज्ञा