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गायें तथा भैसों का होना (अर्थात् पशु सम्पत्ति को प्रचुरता) प्रमुख हैं। वही देश उत्तम माना जा सकता है, जहाँ प्रजा सुखपूर्वक निवास करे । देश की सीमा के अन्दर खेट, खवंट. मटम्य, पुटमेदन, द्रोणमुख, खाने, खेत,ग्राम, घोष, पुर, पर्वत, नदी, वन, जिनगृह बज", तथा सरोवर सभी आते थे।
विसंधान महाकाव्य में राज्य की कोई परिभाषा उपलब्ध नहीं होती है । द्वितीय मग के 'एक वर्णन से राज्य की सीमा को एक झाँकी प्राप्त होती है। राजा दशरथ तथा पाण्डु का वर्णन करते हए कहा गया है कि वह राजा निर्मल तथा पर्याप्त यशरूपी धमको चित करने के लिए व्यवसायों से भरे बाजारों खनिक क्षेत्रों, अरण्यों. समुद्री तौरों पर स्थित पत्तनों (नगरी), पशुपालकों की बस्तियों, दुर्गा तथा राष्ट्रों में गुणों की अपेक्षा प्रचुर मात्रा में सम्पत्ति को नहा रहा था । इससे स्पष्ट है कि राज्य की सीमायें बहुत विशाल थी और उसके अन्तर्गत बाजार, खनिक क्षेत्र, अरण्य, समुद्री तीरों पर स्थित नगर, पशुपालकों की बस्ती, दुर्ग तथा राष्ट्र सभी आ जाते थे । जो राजा जितना अधिक सामथ्यशाली और राजनीति में पटु होला म उस प्रति सन्य. निनार कर लेता था । कृष्ण के विषय में उल्लेख प्राप्त होता है कि उन्होंने अपनी नीति और विशाल रथ के द्वारा दशों दिशाओं के स्वामित्व को प्राप्त किया था ।
आदिपुराण में राज्य के लिए जनपद, विषय देश" तथा राज्य शब्दों का प्रयोग किया गया है । जो राज्य आकार प्रकार में अन्य राज्यों से बड़े होते थे, उन्हें महादेश कहा जाता था। सिंचाई की अपेक्षा राज्य के तीन भेद किए जाते थे (1) अदेवमातृक. (2) देवमातृक, ३। साधारण । नदी, नहरों आदि से सींचे जाने वाले राज्य अदेवमातक, वर्षा के जल से सोंचे जाने वाले देवमातृक और दोनों प्रकार से सींचे जाने वाले राज्य साधारण कहलाते थे । राज्यों की सीमाओं पर अन्तपालों (सीमारक्षकों) के किले बना दिए जाते थे' । राज्यों के बीच कोट, प्राकार, परिखा. गोपुर और अट्टालय से सुशोभित राजधानी होती थी । राजधानी रूप किले को घेरकर गाँव आदि (स्थानीय) की रचना होती थी" | आदिपुराण में जो नामादि की परिभाषायें उपलब्ध होती है, तदनुसार जिनमें बाड़ से घिरे हए घर हों, जिनमें अधिकतर शुद्र और किसान लोग रहते हों तथा जो बगीर्चा और तालाबों से सहित हो उसे ग्राम कहते हैं । जिसमें सो घर हों उसे निकृष्ट अथवा छोटा गाँध कहते हैं तथा जिसमें पांच सौ घर हों और जिसके किसान धन पप्पन हों, उमे बड़ा गाँव कहते हैं । सामान्यत: गाँव पास-पास बसे होते थे। इनकी निकटता इसमे सहज प्रकट होती है कि गाँव का मुर्गा दूसरे गाँव आसानी से जा सकता था, इसी कारण गाँवों का विशेषण 'कुक्कुटसम्पाल्यान्' मिलता है | नदी, पहाड़, गुफा, श्मशान, श्रीरवृक्ष. कटोले वृक्ष. वन और पुल से गांव की सीमा का विभाग किया जाता था | जो परिखा, गोपुर. अट्टाल. कोट, तथा प्राकार से सुशोभित होता हो, जिसमें अनेक भवन बने हो, जो वाग और तालाबों मे युक्त हो, जो उत्तम रीति से अच्छे स्थान पर बसा हो तथा जिसमें पानी का प्रवाह पूर्वोत्तर दिशा के बीच वाला ईशान दिशा में हो और जो ग्रधान पुरुषों के रहने योग्य हो उसे नगर कहते थे । जो नगर नदो और पर्वत से घिरा होता था उसे खेट और जो पर्वत से घिरा होता था, उसे नर्वट कहते थे । जो पाँच सौ गाँव से घिरा होता था, उसे मदम्ब कहते थे तथा जो समुद्र के किनारे हो तथा जहाँ लोग नावों से किनारे पर उतरते हों उसे पत्तन कहते थे । जो नदी के किनारे होता था उसे द्रोणमुख्न और जहाँ मस्तकपर्यन्त ऊँचे-ऊँचे मान्य के ढेर लगे रहते थे यह संवाह कहलाता था । एक राजधानी में आठ सौ, द्रौणमुख में चार सौ तथा खमंट में दो सौ गाँव होते थे । दश गाँव के बीच जो एक