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से पूर्ण थी । आठवौं पद्मनिधि पटाम्बर, बीन, महानेत्र, दुकूल, उत्तम कम्बल तथा अनेक प्रकार के रंग बिरंगे वस्त्रों से परिपूर्ण थीं । नौवीं पिंगलनिधि कड़े तथा कटिसूत्र आदि स्त्री पुरुषों के आभूषण
और हाथी, घोड़ा आदि के अलंकारों से परिपूर्ण थी, ये नौ निधियाँ कामवृद्धि नामक गृहपत्ति के आधीन थी और सदा चक्रवर्ती के मनोरथों को पूर्ण करती थीं । चक्रवती के तीन सौ साठ रसोइया थे, जो प्रतिदिन कल्याणकारी सीथों से युक्त आहार बनाते थे। एक हजार चावलों का एक कवल होता है ऐसे बत्तीस कवल प्रमाण चक्रवर्ती का आहार था, चक्रवर्ती की रानीसुभद्रा का आहार एक कवल था और एक कवल अन्य समस्त लोगों की तृप्ति के लिए पर्याप्त था । चक्रवर्ती के निन्यानवे हजार चित्रकार थे, बत्तास हजार मुकुटबद्ध राजा और उतने ही देश थे तथा न्यानवे हजार रानियाँ र्थी । एक करोड़ हल, तीन करोड़ कामधेनु गायें, वायु के समान वेगशाली अट्ठारह करोड़ घोड़े, मत्त एवं धीरे-धीरे गमन करने वाले चौरासी लाख हाथी और उतने ही उत्तम रथ थे | भाजन, भोजन, शय्या. सेना, वाहन, आसन, निधि, रत्न. नगर और नाट्य ये दश प्रकार के भोग थे।
आदिपुराण में चक्रवर्ती के राजराज अधिराट् और सम्राट् विशेषण भी प्राप्त होते हैं। यह छह खण्ड का अविपतिः। और राजर्षियों का नायक सार्वभौम राजा होता था। चौरासी लाख हाथी, चौरासी लाख रथंग, बत्तीस हजार मुकुट बद्ध राजा, बत्तीस हजार देशा* 96000 रानियो', बत्तीस हजार नगर', 96 करोड़ गांव'". 99 हजार द्रोणमुखा, 48 हजार पत्तन". सोलह हजार खेट, 56 अन्तंद्वीप, 14 हजार संवाह"", एक लाख करोड़ हल तीन करोड़ वृक्षा, सात सौ कुक्षिवास, (जहाँ रत्नों का व्यापार होता है), अट्ठाईस हजार सघन वन, अठारह हजार प्लेच्छराजा, नौ निधियाँ, चौदह रत्न और दश प्रकार के भोगों का यह स्वामी होता है । आदि पुराण सैतीसवें पर्व में उसकी नौ निधियां, चौदह रत्न, दश प्रकार के भोग तथा अन्य वैभव का विस्तृत वर्णन किया गया है। उसका शरीर बज्रवृषभनाराच संहनन का होता है तथा शरीर पर चौसठ लक्षण होते हैं । वर्धमान चरित के 14वें तथा चन्द्रप्रभचरित के सातवें सगं में चक्रवती की विभूति का वर्णन किया गया है जो उपर्युक्त वर्णन से मिलता जुलता है।
शुक्रनीति में सामन्त, माण्डलिक, राजा, महाराज, स्वराट्, सम्राट, विराट् तमा सार्व भौम (चक्रवती) राजाओं को तालिका दी गई है । तदनुसार सामन्त जी वार्षिक भूमिकर से आय । लाख, माण्डलिक की आय 4 लाख से 10 लाख तथा राजा की आय 11 लाख से 20 लाख, महाराज की आय 21 लाख से 50 लाख, वराट को आय 51 लाख से 1 करोड़, सम्राट् की आय 2 करोड़ से 10 करोड़, विराट की आव 11 करोड़ से अधिक चाँदी की कापिण होती थी और इमसे ऊपर की आय वाले को सार्वभौम कहा जाता था । कौटिल्य के अनुसार हिमालय से लेकर दक्षिण समुद्र पर्यन्त पूर्व-पश्चिम दिशाओं में एक हजार योजन तक फैला हुआ और-पश्चिम की सीमाओं के बीच का भूभाग चक्रवती का क्षेत्र कहलाता था अर्थात इतनी पृथ्वी पर राज्य करने वाला राजा चक्रवर्ती होता था।
अर्द्धचक्री - इस राजा का वैभव चक्रवती के से आधा माना गया है । हरिवंशपुराण में अर्द्धचक्री कृष्ण की विभूति का वर्णन किया गया है, तदनुसार उनके पास शत्रुओं का मुख नहीं देखने वाला सुदर्शनचक्र, अपने शब्द से शत्रुपक्ष को कम्पित करने वास्ता शाङ्गधनुध, सौनन्दक खड्ग, कौमुदी गदा, शत्रुओं पर व्यर्थ नहीं जाने वाली अमोचमूला शक्ति, पाञ्चजन्यशंख और