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राजा के गुण - पद्धचरित में प्रतिबिम्बित राजा के गुण -रविषेण के अनुसार राजा कोशूरवीर होना चाहिए । शूरवीरता के द्वारा राजा समस्त लोगों की रक्षा करता है । राजा को नीतिपूर्वक कार्य करना चाहिए। जो राजा अहंकार से ग्रस्त नहीं होता, शस्त्रविषयक व्यायाम से विमुख नहीं होता, आपत्ति के समय कभी व्यग्र नहीं होता, जो मनुष्य उसके समक्ष नम्रीभूत होते हैं उनका सम्मान करता है, दोषरहित सज्जनों को ही रत्न समझता है, जिसमें दान दिया जाता है ऐसो क्रियाओं को कार्यसिद्धि का श्रेष्ठ साधन समझता है*, समुद्र के समान गम्भीर होता है तथा परमार्थ को जानता है ऐसा राजा श्रेष्ठ माना गया है। राजा को जिनशासन (धर्म) के रहस्य को जानने वाला, शरणागत वत्सल, परोपकार में तत्पर, दया से आदींचत, विज्ञान विशुरु हृदय वाला. निन्द कार्यो से निवृत्तबुद्धि पिता के समान रक्षक, प्राणिहित में तत्पर, दीन हीन आदि का तथा विशेषकर मातृजाति का रक्षक, शुद्धकार्य करने वाला, शत्रुओं को नष्ट करने वाला. शस्त्र और शास्त्र का अभ्यासी, शान्तिकार्य में शांवट से रहित, परस्त्री को अजगर सहित कूप के समान जानने वाला. मंदार शत के भरा से भार्ग में
समादी और सी तरह मे इन्द्रियों को वश में करने वाला होना चाहिए । जो राजा अतिशय बलिष्ठ तथा शूरवारों की चेष्टा को धारण करने वाले होते हैं वे कभी भी भयभीत, ब्राह्मण निहत्थे, स्त्री, बालक, पशु और दूत पर प्रहार नहीं करते हैं। बहुत बड़े खजाने का स्वामी होकर जो राजा पृथ्वी को रक्षा करता है और परचक्र (शत्रु) के द्वारा अभिभूत होने पर भी जो विनाश को प्राप्त नहीं होता तथा हिंसा धर्म में रहित एवं यज्ञ अादि में दक्षिणा देने वाले लोगो की जो रक्षा करता है, उस राजा को भोग पुनः प्राप्त होते हैं: । श्रेष्ठ राजा लोकतन्त्र को जानने वाला होता है। राजा अस्त्र वाहन कवच आदि देकर अन्य राजाओं का सम्मान करता है । राजा सत्य बोलने वाला तथा जीवों का रक्षक होता है । जीवों की रक्षा करने के कारण राजा ऋषि कहलाने योग्य है, क्योंकि जो जीवों की रक्षा में तत्पर है के हो ऋषि कहलाने
घरांगचरित में प्रतिविम्बित राजा के गुण -वगंगचरित में धर्मसेन और वगंग आदि राजाओं के गुणों का वर्णन किया गया है। इन गुणों को देखने पर ऐसा लगता है कि जटासिंहन्दि उपर्युका राजाओं के बहाने श्रेष्ठ राजा के गुणों का ही वर्णन कर रहे हैं। इस दुष्टि से एक अच्छे राजा के निम्नलिखित गुण प्राप्त होते हैं ।
राजा को आख्यायिका, गणित तथा काव्य के रस को जानने वाला, गुरुजनों की सेवा का व्यसनी. दुढ़ मैत्री रखने वाला, प्रमाद, अहंकार, मोह तथा ईष्यां से रहित. सज्जनों और भली वस्तुओं का संग्रह करने वाला, स्थिर मित्रों वाला, मधुरभाषी, निर्लोभी, निपुण्य और वन्धु वान्धवों का हितेषा होना चाहिए । इसका आन्तरिक और वाह्य व्यक्तित्व इस प्रकार हो कि वह मौन्दर्य द्वारा कामदेव को, न्यायनिपुणता से शुक्राचार्य को, शारीरिक कान्ति से चन्द्रमा को, प्रसिद्ध यश के द्वारा इन्द्र को. दीप्ति के द्वारा सूर्य को, गम्भीरता तथा सहनशीलता से समुद्र को और दण्ड के द्वारा यमराज को भी तिरस्कृत कर दे। अपनी स्वाभविक विनय से उत्पन्न उदार आचरणों तथा महान् गुणों द्वारा वह उन लोगों के भी मन को मुग्ध कर ले, जिन्होंने उसके विरुद्ध वैर की दृढ़ गाँठ गाँध ली हो। वह कुल शील, पराक्रम, ज्ञान, धर्म तथा नीति में बढ़ चढ़कर हो । राजा को चाहिए कि उसके अनुगामी सेवक उससे सन्तुष्ट रहें तथा प्रत्येक कार्य को तत्परता से करें, उसके मित्र समोप में