________________
3.मध्यम वृत्तिकाआश्रय - उत्तम राजा न तो अत्यन्त कठोर होता है और न अत्यन्त कोमल, अपितु मध्यम वृत्ति का आनाय कर जगत् को वशीभूत करता है।
4. कार्य को स्वयं निश्चित करना - श्रेष्ठ राजा स्वयं ही कार्य का निश्चय कर लेता है, मन्त्री उसके निराकार हुए कार को मः प्रम पार है।
5. शान्ति और प्रताप - पृथ्वी को जीतने वाले राजा नम्रीभुत राजाओं को सन्तुष्ट करते हैं और विरोधी राजाओं को अच्छी तरह सन्तपत करते हैं, क्योंकि शान्ति और प्रताप ये हो राजाओं के योग्य गुण है। अहंकारी राजाओं को दण्डित करना और उत्तम कार्य करने वाले राजाओं पर अनुग्रह करना, क्षत्रियों का यह धर्म न्यायपूर्ण कहा गया है।
6. शत्रुओं का विजेता होना - राजा को बाह्य और आन्तरिक शत्रुओं का विजेता होना चाहिए । श्रेष्ठ राजा कुटिल (वक्र) मनुष्यों को अपने पराक्रम से हो जीत लेता है, ऐसे राजा की सप्तांग सेना केवल आडम्बर मात्र होती है | राजा का राज्य दूसरे के द्वारा तिरस्कृत हो और न वह दूसरों का तिरस्कार करे |आवश्यकता पड़ने पर राजा अपने भुजदण्डों से शत्रुओं के समूह को खण्डित कर दे। वह किसी पुराने मार्ग को अपने आचरण के द्वारा नया कर दे और पश्चाती लोगों के लिए वही मार्ग फिर पुराना हो जायः राजा को प्रताप रूपीबड़वानल की चंचल ज्वालों के समूह से देदीप्यमान होना चाहिए। शत्रुद्धारा जिसका सैन्य नष्ट कर दिया गया है ऐसाशक्तिहीन राजा अपने झुण्ड मे भ्रष्ट हुए अकेले हाथी के समान किसके वश में नहीं किया जाता है अर्थात् सभी के द्वारा किया जाता है । जिसकी समस्त जलराशि निकल चुकी है ऐसे जलशून्य तालाब में वर्तमान मगर आदि जैसे जलसर्प के समान निर्विष तथा क्षीणशक्ति हो जाता है। उसी प्रकार सैन्य के क्षम हो जाने से राजा भी क्षीण शक्ति हो जाता है वन से निकला सिंह जिस प्रकार गीदड़ के समान हो जाता है, उसी प्रकार ऐसे व्यक्ति को स्थिति होती है । अत: शत्रु से युद्ध करना अथवा भाग जाना इन दोनों में जब विनाश निश्चित हो तब प्रहार करना ही श्रेयस्कर है, क्योंकि प्रहार करने में ऐकान्तिक विनाश नहीं होता है | योग्य की गति कुटिल होती है, क्योंकि वह मरने की कामना करने वाले को दीर्घायु देती है व जीवन की आकांक्षा करने वाले को मार डालती है ।अत: राजा को चाहिए कि लड़ाई के समय परचक्र से आए हुए किसी भी अपरीक्षित व्यक्ति को अपने पक्ष में न मिलाए । यदि मिलाना हो तो अच्छी तरह परीक्षा करके मिलाए परन्तु उसे वहाँ ठहरने न दे और शत्रु के कुटुम्बी जो उससे नाराज होकर वहाँ से चले आए हैं, उन्हें परीक्षापूर्वक अपने में मिलाकर ठहराने, किन्तु अन्य को नहीं । इतिहास बतलाता है कि कृकालास नाम के सेनापति ने अपने स्वामी से शुठ कलह कर शत्रु के हृदय में अपना विश्वास कराकर अपने स्वामो के प्रतिपक्षी विश्वास नामक राजा को मार डाला |
7. प्रजापालन - राजा के राज्य में चारों वर्गों और आश्रयों के लोग उत्तम धर्म के कार्यों इच्छानुसार प्रवृत्ति करें। वह अपने राज्य का भाइयों में विभाजन कर सुखपूर्वक राज्य का उपभोग करे । जिस प्रकार कुम्भकार के हाथ में लगी हुई मिट्टी उसके वश में रहती है, उसी प्रकार बड़ेबड़े गुणों से शोभायमान राजा की समस्त पृथ्वी उसके वश में रहती है । प्रजा के अनुराग से राजा को अचिन्त्य महिमा प्राप्त होती है ।