Book Title: Jain Rajnaitik Chintan Dhara
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Arunkumar Shastri

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Page 76
________________ हैया | उगा जाता है । लोभी के समस्त गुण निष्कान होते हैं" मनुष्या का का प्रन प्रशसभाय है, जो दूसरों द्वारा भोगा जा सके । जिसको धनीपुरुष रोग के समान स्वयं भोगता है वह कृपण धन निन्दय है। जिस धन के द्वारा शरण में आए हुए आश्रितों का भरण पोषण नहीं किया जाता है, वह कृपणधन व्यर्थ है 37 1 शिष्टाचार से विशुद्ध प्रवृत्ति को न छोड़ना, पारकार्यों में प्रवृत्ति करना तथा आप्त पुरुषों की शास्वविहित बात को न मानना मान है। अपने कुल, बल. ऐश्वर्य, रूप, विद्या आदि के द्वारा अहंकार करना अथवा दूसरों की बढ़ती को रोकना मद है । एक अन्य स्थान पर सोमदेव ने मद्यपान व स्त्रीसंभोग से होने वाले हर्ष को मद कहा है। बिना प्रयोजन दूसरों की कष्ट पहुंचाकर मन में प्रसन्न होना या धनादि की प्राप्ति होने पर मानसिक प्रसन्नता ऋ होना हर्ष है। 2. त्रिवर्गका अविरोधरूपसे सेवन - उत्तम राजा के धर्म, अर्थ और काम परस्पर में किमी को बाधा नहीं पहुंचाते हैं। इसके प्रयोग की निपुणता के कारण ये तीनों वर्ग ( धर्म, अर्थ और काम मानों परस्पर भिन्त्रताको प्राप्त हो जाते हैं | आचार्य गुणभद्र के अनुमार भी राजा परस्पर की अनुकूलता से धर्म,अर्थ और कामरूप त्रिवर्ग की वृद्धि करता है। वादोधसिंह के अनुमार यदि परस्पर विरोध के बिना धर्म, अर्थ और काम सेवन किए जाते हैं ना बाधारहिन मुख मिलता है और क्रम से मोक्ष भी मिलता है। यदि राजा सुख चाहता है तो ( काय के कारण) धर्म और अर्थ पुरुषार्थ नहीं छोड़े, क्योंकि बिना मूल कारण के सुख नहीं हो सकता है । जो अपयश रूपी राष्ट्र को उत्पन्न करने के लिए वर्षा ऋतु के समान है, धर्मरूपी कमलवन को निर्धालित करने के लिा रात्रि के प्रारम्भ के समान है, जो अर्थ पुरुषाधं को नष्ट करने के लिए कठोर राजयक्ष्मा के समान है, मूर्खजनों से जिसमें भीड़-भाड़ उत्पन्न की जाती है और विदेकोजन जिमको निन्दा करते हैं ऐसे काम के मार्ग में बुद्धिमान् अपना पैर नहीं रखते हैं । अतः धर्म और अर्थ का विरोध न कर काम सुख का उपभोग कर राजधर्म को न छोड़ते हुए पृथ्वी का पालन करना चाहिए। नीतिवाक्यामृत के समान जो व्यक्ति काम और अर्थ को छोड़कर धर्म का ही सतत वन करता है वह पके हुए धान्यादि के खेत को छोड़कर जंगल की जोतता है । अत: (राजा) धर्म . अर्थ और काम का समान रूप से सेवन करे । जो मनुष्य धर्म, अर्थ और काम इन तीनों पुरुषार्थो में से केवल एक का ही निरन्तर सेवन करता है, वह केवल उसी पुरुषार्थ को वृद्धि करता है और दूसरे पुरुषार्थों को नष्ट कर डालता है। इन्द्रियों को न जीतने वालों को किसी भी कार्य में सफलता नहीं मिलती है । इष्टपदार्थ में आसक्ति न करने वाले और विरूद्ध बस्तु में प्रवृत्त न होने वाले व्यक्ति को जितेन्द्रिय कहते हैं। कामी व्यक्ति (को मन्मार्ग पर लाने) को कोई औषधि नहीं है। स्त्रियों में अत्यन्त आसिक्त करने वाले पुरुप का धन, धर्म और शरीर नष्ट हो जाता है । अत: धर्म और अर्थ दो अविरोध पूर्वक काम सेवन करे, उमसे सुखी होगा। जो व्यक्ति काप से जीत जाता है (काम के वशीभूत है) वह राज्य के अंगों (स्वामी, आमात्य, राष्ट्र, दुर्ग, कोप और सेना आदि) से शक्तिशाली शत्रुओं पर कैसे विजय प्राप्त कर सकता है ? जो व्यक्ति नोतिशाम्ब से विरूद्ध कामसेवन र वेश्यासेवन, परस्त्रीगमन) करता है, वह समृद्ध होने पर भी चिरकाल तक मुखी नहीं रह सकता है । एक काल में कर्तव्य रूप से प्राप्त हुए धर्म, अर्थ और कामपुरुषार्थों में में पूर्व का पुरुषार्थ ही श्रेष्ठ है । समय (कार्य का समय) का महन न होने से दूसरे पुरुषार्थ को अपेक्षा अर्थपुरुषार्थ श्रेष्ठ है, क्योंकि धर्म और काम पुरुषार्थ का मूल कारण अर्थ है ।

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