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65 वादीभसिंह के अनुसार नया शत्रु तो अस्थायी और हरती है अतः आन्तरिक ओ(काम क्रोधादि) पर विजय प्राप्त करना चाहिए। क्रोष रूपी अग्नि अपने आपको ही जलातो है. दूसरे पदार्थ को नहीं, इसलिए क्रोध करता हुआ पुरुष दूसरे को जलाने की इच्छा से अपने शरीर पर ही अग्नि फेंकता है अपने आप को भी नष्ट करने वाले क्रोधीजन हर प्रकार का दुष्कर्म कर सकते है | यदि अपकार करने वाले मनुष्य पर कोप है तो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के नाशक क्रोध पर ही क्रोध करना चाहिए।
रागासक्त जनों में योग्य-अयोग्य का विचार नहीं रहता है ।समस्त कार्य छोड़कर स्त्रियों में आसक्त रहना समस्त अनर्थ से सम्बन्ध जोड़ने वाला है । समस्त सुर और असुरों के साथ युद्ध की खाज रखने वाले भुजदण्ड की मण्डली से अनायास उठाए हुए कैलाशपर्वत के द्वारा जिसका पराक्रम कष्ठोक्त था और प्रताप के भय से नमस्कार करने वाले अनेक विद्याधरों के मुफुट रूप मणिमय पाद चौकियों पर जिसके चरण लौट रहे थे ऐसा रावण भी स्नेहातिरेक से सीता के विषय में विवश हो रण के अग्रभाग में लक्ष्मण को मारने के लिए छोड़े हुए चक्ररल से मृत्यु को प्राप्त हुआ । इस लोक और परलोक को नष्ट करने वाली तृष्णा और क्रोध में भेद नहीं है । घन से अन्धे मनुष्य सत्पथ को न सुनते हैं, न समझते हैं, न उस पर चलते हैं और चलते हुए भी कार्य की पूर्णता को नहीं प्राप्त कर सकते है | संसार में एक ही पदार्थ के विषय में इच्छा के कारण स्पर्धा सभी के बढ़ती है, किन्तु मात्सर्य से सभी नष्ट हो जाता है | ईष्या करने वाले व्यक्तियों को क्या-क्या खोटे कार्य रुचिकर नहीं लगते है | मत्सर युक्त पुरुषों के वस्तु के यथार्थस्वरूप का विचार नहीं होता है | प्राणियों में ममत्वबुद्धि से उत्पन्न हुआ मोह विशेष होता है। इसके अतिरिक्त पंचेन्द्रियों से उत्पन्न मोह एक दूसरे से बढ़कर होता है।" | मोह का त्याग करना चाहिए. क्योंकि थोड़ा भी मोह देहधारियों की आस्था को अस्थान में गिरा देता है।
नीतिवाक्यामृत में अन्याय से किए गए काम, क्रोध, लोभ, मद, मान और हर्ष ये राजाओं के 6 अन्तरंग शत्रु समूह कहे गए हैं । परपरिगृहीत (वेश्या, परस्त्री) और कन्याओं से विषयभोग करना काम है। कामी पुरुष अत्यन्त बढ़ी हुई कामवासना के कारण संसार में कोई ऐसा अकाय नहीं है, जिसे नहीं करता है। जो व्यक्ति अपनी और शत्रु की शक्ति को न जानकर क्रोध करता है, वह क्रोध उसके विनाश का कारण है | निष्कारण कोप करने वाले राजाके पास सेवक नहीं तहरते हैं । अत्यन्त क्रोध करने वाले मनुष्यों का ऐश्वर्य अग्नि में पड़े हुए नमक के समान सैकड़ों प्रकार से नष्ट हो जाता है | किसी भी क्रोघी पुरुष के सामने नहीं ठहरना चाहिए।" । क्रोथी पुरुष जिस किसी को सामने देखता है, उसी के ऊपर सूर्य के समानरोप रूपी जहर फेंक देता है। अत्यन्त क्रोधी पुरुष बलिष्ठ होने पर भी अष्ठाप' के समान चिरकाल तक जीवित नहीं रहता है। दान करने योग्य धर्मपात्र और कार्यपात्र आदि को धन न देना तथा चोरी, छलकपट और विश्वासघात आदि अन्यायों से दूसरों की सम्पत्ति को हड़प जाना लोप है संसार में धन मिलने से किसे उसका लोभ नहीं होता है | जबकि वृक्ष अपने घन का भोग नहीं करते तथापि वे भो घन के इच्छुक होते हैं तो धन का उपयोग करने वाले मनुष्यों का तो कहना भी क्या है ? (कुटुम्ब आदि के संरक्षण में असमर्थ) केवल उदरपूर्ति करने वाले लोभी पुरुष को उसकी स्त्री छोड़ देतो है, वृहस्पति के समान बुद्धिमान पुरुष भी अधिक लोप, आलस्य व विश्वास करने से मारा जाता