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शत्रुओं को वश में करें, उत्तम लोगों की संगति करे, चुगल खोरों के संसर्ग से दूषित न हो। जो राजा काम, क्रोधादि न्युट शत्रुओं से अपने मन को नहीं बचा सकता है. उसे मानों तिरस्कार के भय से सब सम्पदायें स्वयं छोड़कर चली जाती है राजा को कोतिं सब जगह प्रसिद्ध हो। वह अपने दुःसह पराक्रम से अभिमानी राजाओं को परास्त कर पृथ्वी से कर वसूल करे* 1 राजा को कठोर वृत्ति वाला होना चाहिए । जिस प्रकार कंचुको अपने तेज से कुलवधुओं को वश में कर लेता है, उसी प्रकार राजा भी अपने तेज से चंचला लक्ष्मी को वश में कर ले 'राजा पक्षपात पूर्ण दृष्टि से दूषित न हो। वह अपने निर्मल और प्रसिद्ध गम्भीरता गुण में समुद्र की गम्भीरता के यशरूपी धन को लूट ले । राजविद्या के अध्ययन से जिसकी बुद्धि विशुद्ध हो गई है ऐसा राजा सोच विचारकर कार्य करे, पशुओं की तरह विधेकी होकर कार्य न करे । उसे पृथ्वी का उद्धार करने वाला, बलयुक्त तथा सत्यानुरक्त होना चाहिए | उसमें निर्वासनता नम्रता तथा निरहंकारता का गुण होना चाहिए, धर्म, अर्थ और काम का अविरोध रूप से सेवन करते हुए उसकी चिन्ता जैसी परलोक साचन के प्रति हो, वैसी चिन्ता किसी अन्य के बारे में न हो । राजा उदारता, धैर्य तथा नियादि गुणों का आश्रय है। धर्म में बुद्धि होगा राजा का बड़ा सौभाग्य है, क्योंकि धर्म में निाना हो भविध्य अभ्युदय का प्रधान कारण हैं | जन समूह के मन्ताप को दूर करने वाला राजा अपने गुणों से मन्त्र दिशाओं को उज्जवल कर देता है । यथार्थ में महत्व का कारण केबल ऐश्वर्य नहीं होता, गुण सम्पत्ति हो पुरष को गरब देती है । अपने साव की आग में शत्रुओं को स्वाह करने वाले और गुणों से सम्पूर्ण पृथ्वी का मनोरंजन करने वाले राजा के रक्षक होने पर यह पृथ्वी सदा उपद्रव से रहित होकर भरीपुरो होने लगती है। दयालुता, धर्म ही को धन समझना, दूसरे के प्रयोजन को सिद्ध करने के लिए सम्पत्ति अर्पित करना, अनिघंदरिब और तपस्वियों के समान अन्त्ररण आदि गुण अति दूरवर्ती महान्पुरुषों के चित्त में भी अनुराग उत्पन्न करते हैं | | अत: राजा को दयालु, साध्रुवत्सल और मक्षिकामुक बने रहकर इस पृथ्वी का शासन करना चाहिए और अनाथ लोगों का उद्धार करना चाहिए, क्योंकि दोनों का उद्धार करने से बढ़कर
और कोई तपस्या नहीं है16 | प्रजा के समस्त कष्टों को दूर करने के बाद हो पराक्रमी और नोतिज्ञ राजा को शत्रुओं को जीतने की इच्छा से अपने सहायकों के साथ या करना चाहिए । राजा कभी भी मर्यादा का अतिक्रमण न करे राजा और समुद्र में यही अन्तर है कि समुद्र प्रलयकाल में मांदा (सीमा)को छोड़ देता है, किन्तु उत्तम राजा कभी अपनी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करता हैन । राजा की शूरता नीति से और प्रभुता उदार क्षमासे शून्य न हो, विद्या निनग मे खाली व हों तथा ठमका धन भी निरन्तर दान और भोग में व्यय होना रहे।
वर्धमानचरित में प्रतिबिम्बित राजा के गुण - स्वभाव से शत्रुता रखने वाले बुओं की शरण में आने पर रक्षा करना , परोपकार, निर्मल स्वभाव, राजविधा में प्रवीणता पाठकों को उनकी इच्छा ये अधिक दान देना, विद्वानों से घेष्टित रहना, बुद्धिबल से पृथ्वा रूपी भायों को अपने गुणों में अनुरक्त कर लेना, शत्रुओं को भय से नम्रीभूत बना लेना, मत्सर भावना रखना नौति शास्त्र में निपुण (नयचक्षु) होना, महान् पराक्रमी और विनयी तथा जितात्मा होना पडवर्ग पर विजय प्राप्त करना , साहस, विद्या और प्रभाव में उन्नत होना 4. धैर्य धारण करना, वितय ग्रहण करना, नीतिमार्ग में स्थित रहना, इन्द्रिय और मन के संचार को वश में रखना", सज्जनों से प्रेम