________________
61
वृक्षों का वन और क्षत्रियधर्मरूप सूर्य के लिए उदयाचल स्वरूप उसके द्वारा पृथ्वी खरीद ली जाती है तथा प्रत्येक दिशा में उसके अवस्तम्भ गाड़ दिए जाते हैं । उपर्युक्त गुणों के अतिरिक्त बड़ों की सेवा करना, विशेषज्ञता, नित्य उद्योगी और निराग्रही होना, विद्वानों का एकान्त मेवनीय होना, कानों को आनन्द देने वाले चरित का धारण प्रकृति (मंत्री आदि) को वश में करना, कवियों की मधुर ध्वनि सुनने के लिए लालायति रहना तथा याचकों का मनोरथ पूर्ण करना" राजा के प्रधान गुण हैं |
आदि पुराण में प्रतिविम्बित राजा के गुण राजा अनुराग अथवा प्रेम से अपने मण्डल (देश) को धारण करता है । राजा को अग्रगामी होना चाहिए। यदि राजा आगे चलता है तो अल्प शक्ति के धारक लोग भी उसी कठिन रास्ते से चलने लगते हैं। क्षत्रिय पुत्र को जिसे कोई हरा न कर सके ऐसे यश रूपी धन की ही रक्षा करना चाहिए, क्योंकि इस पृथ्वी में निधियों को गाड़कर अनेक लोग मर चुके हैं। जो रत्न एक हाथ पृथ्वी तक भी साथ नहीं जाते और जिनके लिए राजा लोग मृत्यु प्राप्त करते हैं, ऐसे रत्नों से क्या लाभ है 10 ? राजाओं को वृद्ध मनुष्यों की सलाह मानना चाहिए, क्योंकि उनकी स्थिति विद्या की अपेक्षा वृद्ध मनुष्यों से ही होती है। प्रेम और विनय एन दोनों का मिली तो में ही हो है। यदि उन्हीं कुटुम्बियों के विरोध हो जाय तो उन दोनों की ही गति नष्ट हो जाती है । राजाओं को अपने सम्मान का ध्यान रखना चाहिए | तेजस्वी मनुष्य को जो कुछ अपनी भुजारूपी वृक्ष का फल मिलता है, उनके लिए मोहरूपीलता का फल अर्थात् मोह के इशारे से प्राप्त हुआ चार समुद्र पयंत पृथ्वी का ऐश्वर्य भो प्रशंसनीय नहीं है। जिस प्रकार डुण्डुभ (पनियाँ साँप) साँप इस इस शब्द को निरर्थक करता है. उसी प्रकार जो मनुष्य राजा होकर भी दूसरे की आज्ञा से उपहृत हुई लक्ष्मी को धारण करता है. वह राजा इस शब्द को निरर्थक करता है" । उत्तम राजा पराक्रमयुक्त गम्भीर, उच्चवृत्ति वाला और मर्यादा सहित होता है-", वह केवल प्रजा से कर हो नहीं लेता है, अपितु उसे देता भी हैं। वह प्रजा को दण्ड ही नहीं देता है, अपितु उसकी रक्षा भी करता है। इस प्रकार धर्म के द्वारा उसकी विजय होती है +5 |
-
उत्तरपुराण में प्रतिबिम्बित राजा के गुण आचार्य गुणभद्र के अनुसार राजा को आन्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता और दण्ड इन चार विद्याओं में पारंगत होना चाहिए। जिसकी प्रजा दण्ड के मार्ग में नहीं जाती और इस कारण जो राजा दण्ड का प्रयोग नहीं करता, वह श्रेष्ठ माना जाता है । राजा की दानी होना चाहिए। श्रेष्ठ राजा की दानशीलता से पहले के दरिद्र मनुष्य भी कुबेर के समान आचरण करते हैं। राजा सन्धिविग्रहादि छह गुणों से सुशोभित हो और छह गुण उससे मुशोभित लृ । पुण्यवान् राजा का शरीर और राज्य बिना वैद्य और मंत्री के ही कुशल रहते है" । राजा का धन दान देने में, बुद्धि धार्मिक कार्यों में, शूरवीरता प्राणियों की रक्षा करने में, आयु सुख में और शरीर योगोपयोग में वृद्धि को प्राप्त होता रहता है । राजा के पुण्य की वृद्धि दूसरे के आधीन न हो, कभी नष्ट न हो और उसमें किसी तरह की बाधा न आए ताकि वह तृष्णारहित होकर गुणों का पोषण करता हुआ सुख से रहे। जिस राजा के वचन में सत्यता, चित्त में दया, धार्मिक कार्यो में निर्मलता हो तथा जो प्रजा की अपने गुणों के समान रक्षा करे, वह राजर्षि है। सुजनता राजा का स्वाभविक गुण हो। प्राणहरण करने वाले शत्रु पर भी वह विकार को प्राप्त न हो *" | बुद्धिमान् राजा सब लोगों को गुणों के द्वारा अपने में अनुरक्त बनाए ताकि सब लोग उसे प्रसन्न रखें 24 । जिस
I