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छोड़कर यदि देवतास्वरूप नृपति ही अनाचरण करने लगे तो कैसे चलेगा ? जो राजा दुष्ट होता है वह कैचे पदार्थ (या व्यक्ति) को नीचा कर देता है, नीचे से नीचे पदार्थ (या व्यक्ति) उसे ऊँचे प्रतीत होते है16 | इस प्रकार उसे कर्त्तव्य, अकर्तव्य का भेद समझ में नहीं आता है राआओं को राजलक्ष्मी का अहंकार नहीं करना चाहिए तथा लक्ष्मी की प्राप्ति की अभिलाषा को मन्द रखना चाहिए, क्योंकि अन्त में शरीर भी पृथ्वी का पालन करने में असमर्थ होकर नीरस हो जाता है। केवल लौकिक कार्यों में कृत्कृत्य होने से ही जीवन चरितार्थ नहीं होता, जन्मान्तर की साधना भी आवश्यक है जिस प्रकार केवल दुपट्टे (उत्तरीय) से ही शरीर की लज्जा नहीं हैकती है अपितु परिधान (अधरोय) भी आवश्यक होता है । मृत्युकाल उपस्थित होने पर भी राजा को प्रकृति पें स्थिर, महान पराक्रमी तथा मनोभावों का शासी होना चाहिए. मन से व्याकुल होकर कदापि नहीं रहना चाहिए, क्योंकि अन्त समय आने पर मृत्यु भोत पुरुष को भी नहीं छोड़ती है। सम्पत्ति, शिक्षा, न्याय, स्थायित्व और प्रेम के लिए शस्त्र उठाने वाले प्रखर सेजस्ती राजा शत्रुओं को अपने रोष से ही कोलित कर देते हैं जो राजा राजनीति की भूमि के ऊपर आमात्यादि सात राजतन्त्र के मूलों को स्थिर करता हुआ समस्त दिशाओं में अपने कुल के ही शरता राजाओं का प्रसार करता है तथा अनायास ही सुख शान्ति रूप फलों को देता है वह राजा जनता के लिए कल्पवृक्ष के समान होता है।
__ वादीमसिंह के काथ्यों में प्रतिबिम्बित राजा के गुण - वादीसिंह के अनुसार राज्य को प्राप्त कर श्रेष्ठ राजा समस्त गुणों से सुशोभित होता है । हार में पिरोया गया काँच निंदापने का प्राप्त होता है, किन्तु मणिप्रशस्तपने को ही प्राप्त होता है । दु:सह प्रताप के रहने पर भी श्रेष्ट राजा में सुखोपसेव्यता, सुकुमार रहने पर भी आर्यजनों के योग्य उत्तम आचार, अत्यधिक साहसी होते हुए भी समस्त मनुष्यों की विश्वासपात्रता, पृथ्वी का भार धारण करने पर भी अख्त्रिता.निरन्तर दान देने पर भी कोश को अक्षीणता, शत्रुओं के तिरस्कार की अभिलाषा होने पर भी परमकारुणिकता, काम की परतन्त्रता होने पर भी अत्यधिक पवित्रता देखी जाती है। उनको इष्टफल की प्राप्ति, कार्यारम्भ की, विधा को, प्राप्ति बुद्धि को, शत्रुओं का क्षय पराक्रम को, मनुष्यों का अनुराग पर हिततत्परता का,अनाक्रमण प्रताप को, विरुदावली दातको, कवियों का संग्रह काव्यरस को अभिज्ञता को, कल्याण रूप सम्पत्ति दृढ़ प्रतिज्ञा को, लोगों के द्वारा अपने कार्यों को उल्लंघन न होना न्यायपूर्ण नेतृत्व को, धर्मशास्त्र के श्रवण करने की इच्छा तत्वज्ञान को. मुनिजनों के चरणों में नम्रता दुष्ट अभिमान के अभाव को, दान के जल से गोला किया हुआ हाथ माननीयता को. जिनेन्द्रदेव की पूजा परमधार्मिकता को और छुद्र पशुओं का अभाव नीतिनिपुणता को चुपचाप सूचित करता है | जिस प्रकार धान के खेत में बीज बोने वाले किसान आनन्दित होते हैं, उसो प्रकार (उत्तम) राजा को कर देना भी प्रोतिकर होता है । यह पन्दमुसकान से इष्ट कार्य सिद्ध कर आए हुए सामन्तों में, कटाक्षपात से प्रसन्नता को प्राप्त मनुष्यों के लिए हजारों दीनारों के देने में, कर्णदान से अनेक देशों से आने वाले गुप्तचरों के वचन सुनने में, प्रतिबिम्ब के बहाने विशधर राजाओं के मुकुटों में और नेत्र से मित्र के शरीर में निवास करता है। उसके दान गुण के द्वारा कल्पवृक्ष की महिमा मन्द पड़ जाती है19 | वह पराक्रम से राजाओं के शरीर अथवा युद्ध को नष्ट करता है रणरूपी मागर को जीतने के लिए जहाज, तलवार रूपी सर्व के विहार के लिए चन्दन