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हो और वह हर समय सम्बन्धियों से आश्रित न रहे। प्रबुद्ध और स्थिर होना राजा का बहुत बड़ा गुण है। जो व्यक्ति स्वयं जागता है, वही दूसरों को जगा सकता है। जो स्वयं स्थिर है, वह दूसरों की डगमग अवस्था का अन्त कर सकता है। जो स्वयं नहीं जागता है और जिसको स्थिति अत्यन्त डॉवाडोल है, वह दूसरों को न तो प्रबुद्ध कर सकता है और न स्थिर कर सकता है* । राजा की कोर्ति सब जगह फैली होनी चाहिए कि वह न्यायनीति में पारंगत, दृष्टों को दण्ड देने वाला. प्रजा का हितैषी और दयावान है। राजा राज सभा में पहिले जो घोषणा करता है, उसके विपरीत आचरण करना आयुक्त तथा धर्म के अत्यन्त विरुद्ध है। इस प्रकार के कार्य का सज्जनपुरुष परिहास करते हैं । राजा धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थी का इस ढंग से सेवन करे कि उसमें से किसी एक का अन्य से विरोध न हो। इस व्यवस्थित क्रम को अपनाने वाला राजा अपनी विजयपताका फहरा देता है 361 | राजा की दिनचर्या ऐसी होनी चाहिए कि वह प्रातः काल से सन्ध्या समय तक पुण्यमय उत्सवों में व्यस्त रहे। अपने स्नेही बन्धु, बान्धव, मित्र तथा अर्थिजनों को भेंट आदि देता रहे * । ऐसे राजा की प्रत्येक चेष्टा प्रजा की दृष्टि में प्रामाणिक होती है, अतः वह उस पर अडिग विश्वास रखती है। राजा का विवेक आपत्तियों में भी कम नहीं होना चाहिए। संकट के समय भी वह किसी प्रकार की असमर्थता का अनुभव न करे तथा उसे अपने कार्यों का इतना अधिक ज्ञान हो कि कर्तव्य अकर्त्तव्य, शत्रु पक्ष आत्मपक्ष तथा मित्र और शत्रु के स्वभाव को जानने में उसे देर न लगे । जिस राजा का अभ्युदय बढ़ता है उसके पास अङ्गनायें, अच्छे मित्र, बान्धव, उत्तम रत्न श्रेष्ठहाथी, सुलक्षण अश्व, दृढ़ रथ आदि हर्ष तथा उल्लास के उत्पादक नूतन-नूतन साधन अनायास ही आते रहते है 65 1 रांजा का यह कतंत्र्य है कि वह राज्य में पड़े हुए निराश्रित बच्चे, बुढों तथा स्त्रियों, अत्यधिक काम लिए जाने के कारण स्वास्थ्य नष्ट हो जाने पर किसी भी कार्य के अयोग्य श्रमिकों. अनाथ, अन्धीं, दोनों तथा भंयकर रोगों में फसे हुए लोगों की सामर्थ्य, अमामर्थ तथा उनको शारीरिक, मानसिक दुर्बलता आदि का पता लगाकर उनके भरण पोषण का प्रबन्ध करे। जिन लोगों का एक मात्र कार्य धर्मसाधना हो उसे गुरु के समान मानकर पूजा करे तथा जिन लोगों ने पहिले किए गए वैर की क्षमा याचना करके शान्त करा दिया हो उनका अपने पुत्रों के समान भरण पोषण करे, किन्तु जो अविवेकी घमण्ड में चूर होकर बहुत बढ़ चढ़कर चलें अथवा दूसरों को कुछ न समझें उन लोगों को अपने देश से निकाल दे । जो अधिकारी अथवा प्रजाजन स्वभाव से कोमल हों, नियमों का पालन करते हुए जीवन व्यतीत करें, अपने कर्त्तव्यों आदि को उपयुक्त समय के भीतर कर दें, उन लोगों को समझने तथा पुरस्कार आदि देने में वह अत्यन्त तीव्र हो । राजा को प्रजा का अत्यधिक प्यारा होना चाहिए। वह सत्र परिस्थितियों में शान्त रहे और शत्रुओं का उन्मूलन करता हुआ अपनी ऋद्धियों को बढ़ाता रहे
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द्विसन्धान महाकाव्य में प्रतिबिम्बित राजा के गुण द्विसन्धान महाकाव्य में धनञ्जय ने दशरथ, पाण्डु, राम, कृष्ण आदि राजाओं और उनके गुणों का वर्णन किया है। उक्त वर्णन के आधार पर राजा के गुणों के विषय में निम्नलिखित जानकारी प्राप्त होती है -
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राजा को ऋषियों द्वारा प्रणेत धार्मिक संयम के विषय में दिन रात जागरुक, चन्द्रमा को क्रान्ति के समान धवल, नगर लक्ष्मी के मुख की शोभा का विकासक, वृद्धिगत राजलक्ष्मी का स्वामी. भीषण पराक्रमी, गुरु को कुलदेवता मानकर अपनी सम्पत्ति देने वाला, अपने भाई बन्धुओं को