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राजमण्डल के प्रति कर्तव्य :- राजमण्डल निम्नलिखित समूह से बनता है :(1) उदासीन (2)मध्यम (3) विजिगीषु (4) अरि (S) मित्र (6) पाणिग्राह (7) आक्रन्द (8) आसार (9) अन्तर्दिध । राजा को इन्हें अपने अनुकूल रखने का प्रयत्न करना चाहिए।
उदासीन :- अपने देश में वर्तमान जो राजा किमी अन्य विजिगीषु (विजय के इच्छुक ) राजा के आगे, पीछे या समीपत्रों स्थित हो और मध्यम आदि युद्ध करने वालों के निग्रह करने में और उन्हें युद्ध से रोकने में सामर्थ्यवान् होने पर भी किसी कारण से या किसी अपेक्षानश दूसरे राजा के प्रति जो उपेक्षाभाव रखता है, उससे युद्ध नहीं करता है, उसे उदासीन कहते हैं ।
मध्यम या मध्यस्थ - जो उदासीन की तरह मर्यादातीत मण्डल का रक्षक होने से अन्य राजा की अपेक्षा प्रबल सैन्य शक्तिशाली होने पर भी किसी रणवत्र विजय की कामना करने वाले अन्य राजा के विषय में मध्यस्थ बना रहता है, उसे मध्यस्थ कहते हैं"।
विजिगीषु-जो राज्याभिषेक से अभिषिक्त हो चुका हो तथा भाग्यशाली खजाना आदि द्रव्य से युक्त, मंत्री आदि प्रकृति से संयुक्त, राजनीति में निपुण एवं शूरवीर हो उसे विजिगीषु कहते
अरिं - जो अपने निकट सम्बन्धियों का अपराध करता हुआ कभी भी प्रतिकूल आचरण करने से बाज नहीं आता उसे अरिं कहते है।
मित्र - मित्र का लक्षण पहले कहा जा चुका है।
पाणिग्राह - विजिगीषु के शत्रु राजा के साथ युद्ध के लिए प्रस्थान करने पर बाद में जो कूद्ध होकर उसके देश को नष्ट भृष्ट कर डालता है, उसे पाणिग्राह कहते हैं।
आक्रन्द - जो प्राणिग्राह से विपरीत चलता है अर्थात विजगोषु की विजययात्रा में हर प्रकार से सहायता करता है, उसे आक्रद कहते हैं । __ आसार - जो पाणिग्राह से विरोध रखता हो और आनन्द का मित्र हो, वह आसार हं"।
अन्तर्दिय- शत्रु और विजिगीषु दोनों राजाओं से जीविका प्राप्त करने वाला तथा पर्वत और अटवी में रहने वाला अन्तर्धि है। .
शा के कटुम्चियों के प्रति राजकर्तव्य - राजा शत्रु का अपकार करके ठमके शक्तिहीन कुटुम्बियों को भूमिप्रदान कर उन्हें अपने अधीन बनाए अथवा ( यदि बलिष्ट हों तो ) उन्हें क्लेशित करे ।
परदेश में रहने वाले स्वदेशी व्यक्ति के प्रति राजकर्तव्य - राजा का कत्र्तव्य है कि वह परदेश में प्राप्त हुए अपने स्वदेशवासी मनुष्य को, जिससे कि इसने कर ग्रहण किया हो अथवा न मी किया हो, दान सम्मान से वश में करे और अपने देश के प्रति अनुरागी बनाकर उसे वहां से लौटाकर अपने देश में बसाए |
सहायकों के प्रति राजकर्तव्य - कार्य के समय सहायकपुरुषों का मिलना दुर्लभ है। अत: स्वामी को अपने अधीन सेवकों को इतना पर्याप्त घन देना चाहिए, जिससे वे पत्तुष्ट हो