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कौटिल्य अर्थशास्त्र में सामन्त शब्द पड़ौसी राज्य के राजा के लिए आया है । शुक्रनीति के अनुसार जिसकी वार्षिक आय ( भूमि से) एक लाख चाँदी के कार्षापण होती थी, वह सामन् कहलाता था" । वासुदेवशरण अग्रवाल ने सामन्त संख्या का विकास ऐसे मध्यस्थ अधिकारियों से बतलाने का प्रयास किया है, जिन्हें छोटे मोटे रजवाड़ों के समस्त अधिकार सौंपकर शाहानुशाहिया महाराजधिराज या बड़े सम्राट् शासन का प्रबन्ध चलाते थे । युद्ध के प्रसंग में रक्षा, हाथी, सिंह, सुकर, कृष्णमृग, सामान्यमृग, सामर, नाना प्रकार के पक्षी, बैल. ऊँट, घोड़े, भैंस आदि वाहनों पर सवार, सिंह, व्याघ्र, हाथियों " आदि से जुते रथों पर सवार तथा घोड़ों के वेग की तरह तीव्र गति वाले 5 सामन्तों का उल्लेख पद्मचरित में हुआ है। सामन्तराजा के पास दुर्ग और सेना रहती थी। कभी कभी वह अहंकारवश अपने स्वामी के साथ बगावत कर बैठता था। जयपुर के राजा सिंहकुमार के प्रति दुर्भाति नाम के पड़ौसी आटविक सामन्तराज की बगावत का उल्लेख हरिभद्र ने विस्तार से किया है 197 ।
हरिभद्र के वर्णन से स्पष्ट है कि सामन्त के पास अपनी सेना रहती थी, वह अपने ढंग से राज्य की व्यवस्था करता था और अपने स्वामी को कर देता था । मध्यकाल में सामन्तों की आय बट गई थी। अपराजित पृच्छा के अनुसार लघुसामन्त की आय 5 सहस्त्र, सामन्त की 10 सहस्त्र, महासामन्त या सामन्तमुख्य की 20 सहस्त्र होना चाहिए। समय आने पर प्रायः सामन्त अपनी स्वामी राजाओं की युद्ध में सहायता करते थे और फलस्वरुप पुरस्कार के अधिकारी होते थे। सामन्त और महासामन्तों का राज्य में महत्वपूर्ण स्थान होता था। अपने पति दक्षप्रजापित से रुष्ट होकर इला देवी महासामन्तों से घिरी होकर अपने ऐलेय को ले दुर्गम वन में चली गई (हरिवंशपुरम 17/17) |
द्वीपपति- द्वीपों के स्वामी को द्वीपपति कहते थे ।
भूचरण - विद्याबल से रहित राजाओं को भूचर कहा जाता था। प्राचीन आचार्यों ने प्रकारान्तर से राजाओं के तीन भेद किए हैं१. धर्मविजयी
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2. लोभविजयी 3. असुरविजयी
1. धर्मविजयी राजा :- जो राजा प्रजा पर नियत किए हुए कर से ही सन्तुष्ट होकर उसके प्राण, धन व मान की रक्षा करता हुआ अन्याय प्रवृति नहीं करता है- उसके प्राण व धनादि नष्ट नहीं करता है, उसे धर्मवजयी राजा कहते हैं ।
2. लोभविजयी राजा :- जो केवल धन से ही प्रेम रखकर प्रजा के प्राण और माल मर्यादा की रक्षार्थ उसके साथ अन्यायपूर्ण व्यवहार नहीं करता, उसे लोभविजयी कहते कृष्
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3. असुरविजयी राजा :- जो प्रजा के प्राण और सम्मान का नाशपूर्वक शत्रु का वध करके उसकी भूमि चाहता है, उसे असुरविजयी कहते
नीतिविद् अपना कार्य सिद्ध करने के लिए पहले को दान देना, दूसरे के साथ शान्ति का व्यवहार करना और तीसरे के लिए भेद्र और दण्ड का प्रयोग कराना, यहाँ ठीक उपाय बत
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सोमदेव ने दूसरे के मत के अनुसार कार्य करने वाले और अपराधियों के अर्धमान व प्राणमान की परीक्षा किए बिना प्राणघात करने वाले राजा को असुरवृत्ति कहा है। जिस भूमि का राजा