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3. मित्र की स्त्री के 4. मित्र के क्रोधित
मित्र के दोष :
1. मित्र द्वारा कुछ
3. पित्त में
4. शत्रुओं से
5. गुलकपट
7. मित्र की 9. सदैव
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ना न रखना
अथवा प्रसन्न होने की स्थिति में उससे ईर्ष्या न रखना।
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दोष निम्नलिखित हैं ।
जाने पर स्नेह रखना। 2. स्वार्थता ।
करना ।
जाना ( विश्वासघात करना - नी. वा. 27/10 ) 6. छिपा रखना
दृष्टि रखना 18 विवाद करना ।
करना और स्वयं कुछ न देना ।
10. धनसम्बन्ध रखना ।
11. पदको प्रकट करना(नो. वा. 11 /53)
12. करना ।
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आदर्शमेकी
मित्र नहीं
है, जो मिल मात्र से ही उसकी वृद्धि कर देता हूँ और अग्नि परीक्षा के समय अपना नाश करके भी दूध की रक्षा करता है । इसी प्रकार सच्चा मित्र होना चाहिए। संसार में पशु भी उपकारी के प्रति कृतज्ञ व विरुद्ध न चलने वाले होते हैं, किन्तु मनुष्य प्राय: विपरीत चलने वाले देखे जाते हैं। सोमदेव ने इसका एक उदाहरण दिया है कि किसी धन में घास से ढके हुए कुये में बन्दर सर्प, शेर, एक जुआरी और सुनार गिर पड़े। किसी कांकायन नामक पश्चिक ने उन्हें बाहर निकाला। उनमें से सब जा लेकर बाहर निकल गए किन्तु जुआरी ने उसके साथ मित्रता कर विशाला
नामक नगरी में सात समय उसे मारकर उसका धन छीन लिया ।
मैत्री के अयोग्य पुरुष जिसके व्यवहार से मन फट चुका हो उसके साथ मित्रता नहीं करना चाहिए 43 | एक बार फटे हुए मन को स्फटिक के कंकड़ के समान कोई भी जोड़ने में समर्थ नहीं है244 | महान् उपकार से भी मन में उतना अधिक स्नेह उपकारी के प्रति नहीं होता, जितना अधिक मन थोड़ा सा अपकार करने से फट जाता है | अतः किसी भी अनुकूल मित्र को शत्रु
न बनाए 46 ।
राजा के अधिकार :- राजा कोश, दुर्ग, सेना आदि का उपयोग करता है, वह किसी महाभय केसमय प्रजा की रक्षा करने के लिए धनसंचय करता है और प्रजा को सन्मार्ग में चलाने के लिए योग्य दण्ड देता हैं | राजा अपने देश में सर्वाधिकार सम्पन्न व्यक्ति है उसकी आज्ञा समस्त मनुष्यों से उल्लघंन न किए जाने वाले प्राकार के समान होतो हे राजकीय ऐश्वर्य का फल प्रजा द्वारा
राजा की आज्ञा का पालन किया जाना है?*
राजा के कर्त्तव्य
1. न्यायपूर्ण व्यवहार न्यायपूर्ण व्यवहार करने वाले राजा को इस संसार में यश का लाभ होता है, महान् वैभव के साथ साथ पृथ्वी की प्राप्ति होती है और परलोक में अभ्युदय ( स्वर्ग ) की प्राप्ति होती है । वह क्रम से तीनों लोकों को जीत लेता है * । न्याय को धन कहा गया है।