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11. युवराज 13. अटवीपति
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12. द्वीपपति
14. सामन्त 133
कुलकर- कर्मभूमि के आदि में समचतुस्र संस्थान और वज्रवृषभनाराच संहनन से युक्त गम्भीर तथा उदारशीर के धारक चौदह कुलकर हुए। इनको अपने पूर्वजन्म का स्मरण था और इनकी मनु संज्ञा थी । इन्होंने मर्यादा की रक्षा के लिए हा, मा, धिक् इन तीन प्रकार की दण्डनीतियों को अपनाया। ये प्रजा के पितातुल्य और अत्यधिक प्रतिभाशाली थे। प्रथम कुलकर प्रतिश्रुति था । वह महान् प्रभावशाली था । उसने प्रजा के अनेक प्राकृतिक भय दूर किए उसने बतलाया कि काल के स्वभाव में भेद होने से पदार्थों का स्वभाव भिन्न हो जाता है. उसी से प्रजा के व्यवहार में विपरीतता आ जाती है। अतः स्वजन या भरजन काल दोष से मयांदा का उल्लंघन करने की चेष्टा करता है तो उसके साथ उसके दोषों के अनुरूप हा, मा, धिक् तीन धाराओं का प्रयोग करना हिए। तीन धाराओं से नियन्त्रण को प्राप्त मनुष्य भय से त्रस्त रहते हैं कि हमारा कोई दोष दृष्टि में न आ जाय और इसी भय से वे दोषों से दूर हटते रहते हैं " । जिस प्रकार गुरु के वचन स्वीकृत किए जाते हैं उसी प्रकार प्रजा ने चूंकि उसके वचन स्वीकृत किए अतः पृथ्वी पर प्रतिश्रुति के नाम से प्रसिद्ध हुआ । प्रतिश्रुति के अतिरिक्त सन्मति क्षेमङ्कर, क्षेमन्धर, सीमकर, सोमन्थर, विपुलवाहन, चक्षुष्मान, यशस्वी, अभिचन्द्र, चन्द्राभ मरुदेव, प्रसेनजित तथा नाभिराज ये तेरह कुलकर और हुए" |
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चक्रवर्ती - चक्रवर्ती ग्रह खण्ड का अधिपति और संप्रभुता सम्पन्न होता है। बीस हजार राजा इसकी अधीनता स्वीकार करते है 2 | हरिवंशपुराण में छह खण्ड से युक्त, भरतक्षेत्र को जीतने वाले चक्रवर्ती भरत'" का वर्णन मिलता है। वे चौदह महारत्न और नौ निधियों से युक्त हो पृथ्वी का निष्कटंक उपभोग करते थे 44 । चक्र, छत्र, खङ्ग, दण्ड, काकिणी, मणि, त्र, सेनापति, गृहपति, हस्ती, अश्व, पुरोहित, धनपति और स्त्री वे उनके चौदह रत्न थे और इनमें से प्रत्येक को एकएक हजार देव रक्षा करते थे। काल, महाकाल, पाण्डुक, माणव, नौसर्प, सर्वरत्न, शंख पदम और पिंगल ये चक्रवर्ती की नौ निधियाँ थीं। ये सभी निधियों अविनाशी थीं और निणिपाल नामक देवों के द्वारा सुरक्षित थीं तथा निरन्तर लोगों के उपकार में आती थी । यह गाड़ी के आकार थी. चार-चार भौरों और आठ-आठ पहियों सहित थी। नौ योजन चौड़ी, बारह योजन लम्बी, आठ योजन गहरी और वक्षारगिरी के समान विशाल कुक्षि से सहित थीं। प्रत्येक को एक एक हजार यक्ष निरन्तर देख रेख करते थे ।
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पहली कालनिधि में ज्योतिषशास्त्र, निमित्तशास्त्र, न्यायशास्त्र, कलाशास्त्र, व्याकरण शास्त्र एवं पुराण का सद्भाव था। दूसरी महाकाल निधि में विद्वानों द्वारा निर्णय करने योग्य पन्चलोह आदि नाना प्रकार के लोहों का सद्भाव था। तीसरी पाण्डुक निधि में शालि, ब्रीहि, जौ आदि समस्त प्रकार की धान्य तथा कहुए चरपरे आदि पदार्थों का सद्भाव था। चौथी माणवक निधि कवच, ढाल, तलवार, बाण, शक्ति, धनुष, चक्र आदि नाना प्रकार के दिव्य शस्त्रों से परिपूर्ण थौं । पाँचवी सर्पनिधि शय्या, आसन आदि नाना प्रकार की वस्तुओं तथा घर के उपयोग में आने वाले नाना प्रकार के भाजनों की पात्र थी । छठवीं सर्वरत्न निधि इन्द्रनीलमणि, महानीलमणि, बज्रमणि वैड्यमणि आदि बड़ी-बड़ी शिखा के धारक उत्तमोत्तम रत्नों से परिपूर्ण थी। सातवीं शंख निधि भेरी, शंख, नगाड़े, वीणा, झल्लरी, मृदंग आदि आघात से तथा फूँककर बजाने योग्य नाना प्रकार के बाजों