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उसकी रक्षा करता है और पृथ्वी भी उसे अपने रत्नादि सारपदार्थ देतो हे गुणवान् राजा पटेव, बुद्धि और उद्यम के द्वारा स्वयं लक्ष्मी का उपार्जन कर उसे सर्वसाधारण के उपभोग करने योग्य बना देता है, साथ ही स्वयं उसका उपभोग करता है" । राजा जब न्यायपूर्वक प्रजा का पालन करता है और स्नेहपूर्ण पृथ्वी को मर्यादा में स्थित रखता है, तभी उसका भूमृतपना मार्थक होता है जिस प्रकार मेढ़कों द्वारा आस्वादन करने योग्य अर्थात् सजल क्षेत्र अटारह प्रकार के इष्ट धान्यों की वृद्धि का कारण होता है, उसी प्रकार (श्रेष्ठ) राजा गुणों को वृद्धि का कारण होता है | चूँकि वह दुर्जनों का निग्रह और सज्जनों का अनुग्रह द्वेष अथवा इच्छा के वश नहीं करता है, किन्तु गुण और दोष को अपेक्षा करता है, आम नाह करते हुए पीदः प्रतामा पला । बहसमापक्ष के समान इच्छित फल को देता है। जिस प्रकार पणियों का आकर ( खान) समुद्र है, उसी प्रकार वह गुण्यों मनुष्यों का आकर है।
चन्द्रप्रभचरित में राजा सर्वोपरि होने के कारण सर्वदेवमय है । वह शिक्षा प्रदाता होने के कारण गुरु (बृहस्पति), समर्थ होने के कारण ईश्वर, नरक नाशक होने के कारण नरकभित (विष्णु), धन देने वाला होने के कारण अनद (कुबेर), लक्ष्मी के निवास के कारण कमलालय (ब्रह्मा}, शीतलवचन बोलने के कारण शिशिरणु (चन्द्रमा). पंडित होने के कारण बुध (बुधग्रह)
और पूर्णज्ञानी होने के कारण सुगत (बुस) माना गया है। यह न्याय से मनुष्यों की, वैभव में देवताओं को, विनय से पूर्णकाय योगियों को और तेज से अन्य राजाओं को विस्मित करता है। उसके वक्षःस्थल में लक्ष्मी का दोनों भुजाओं में श्रेष्टवीरलक्ष्मी का, शरीर में कान्ति का, हृदय में क्षमा का और मुख में सरस्वती के ऐश्वर्य का निवास स्थान है। वह समुद्र के समान उच्च, विष्णु के समानसमर्थ, चन्द्रमा के समान सुन्दर, मुनीन्द्रों के समान जितेन्द्रिय, सिंह के समान शूर,बृहस्पति के समान बुद्धिमान् और समुद्र के समान गम्भीर होता है । ____ आचार्य सोमदेव के अनुसार जो धर्मात्मा, कुलाबार व कुलीनता के कारण विशुद्ध प्रतापो. नैतिक दुष्टों से कुपित व शिष्टों से अनुरक्त होने में स्वतन्त्र और आत्मगौरव युक्त तथा मम्पत्तिशाली हो उसे स्वामी (राजा) कहते है । एक स्थान पर कहा गया है-जो अनुकूल चलने वालों की इन्द्र के समान रक्षा करता है और प्रतिकूल चलने वालों को सजा देता है उसे राजा कहते हैं । समस्त प्रकृति के लोग (मन्त्री आदि) राजा के कारण ही अपने अभिलषित अधिकार प्राप्त करने में समर्थ होते हैं, राजा के बिना नहीं"। जिन वृक्षों की जड़े उखड़ गयो हो, उन से पुष्प और फलादि प्राप्ति के लिए किया गया प्रयत्न जिस प्रकार सफल नहीं हो सकता है उसी प्रकार राजा के नष्ट हो जाने पर प्रकृतिवर्ग के द्वारा अपने अधिकार प्राप्ति के लिए किया हुआ प्रयत्न भी निष्फल होता है । जिस मनुष्य से राजा कुपित हो गया है, उस पर कौन कुपित नहीं होता है ? सभी कुपित होते हैं । जो व्यक्ति राज्जा द्वारा तिरस्कृत किया जाता है, उसका सभी लोग अपमान करने लगते हैं और राजसम्मानित पुरुष को सभी लोग पूजा करते हैं। राजा त्रिपुरुष (ब्रह्मा, विष्णु और महेश) की मुर्ति है अत: इससे दूसरा कोई प्रत्यक्ष देवता नहीं है । स्वामी (राजा) से रहित प्रकृतिवर्ग समृद्ध होने पर भी आपत्ति का पार नहीं पा सकते हैं । परिपालक( रक्षा करने वाला) राजा धर्म के छठे भाग के फल को प्राप्त करता है । वनवासी तपस्वी भी अपने द्वारा संचित घान्यकणों का छठा भाग देकर राजा की उन्नति की कामना करते हैं और यह संकल्प करते हैं कि जो राजा