Book Title: Jain Rajnaitik Chintan Dhara
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Arunkumar Shastri

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Page 49
________________ -.' ' D में ज्येष्ठ, श्रेष्ठ, गुणों के पात्र पुत्र को राज्य देता था। इस प्रकार राज्य का स्वामी कुल क्रमागत होता था । बलबान शत्रु यदि राज्य को जीत लेता था तो वह भी राज्य का स्वामी होता था । ऐसे शत्रु को भी कभी यदि मूल राजकीय वंश का राजकुमार मार देता था, अथवा युद्ध में परास्त कर देता था तो उस राजकुमार का ही राज्याभिषेक होता था। राज्याभिषेक के समय समस्त तीर्थों का जल लाकर स्वर्णमय कलशों से सजा का अभिषेक किया जाता था । अभिषेक का जल उत्तम औषधियों के संसर्ग से निर्मल होता था। इस समय देव, किन्नर तथा वन्दोगण तरह तरह के बाजे बजाते थे। दूसरे राजा लोग अभिषिक्त राजा को प्रणाम करते थे। अभिषिक्त राजा अपने लाभ से प्रसन्नचित पुरवासियों को सोने का कड़ा, कम्बल तथा वस्त्र आदि देकर सन्तुष्ट करता था। अनन्तर महत्वपूर्ण नियुक्तियाँ कर वह चण्डानाधिकारी के द्वारा निम्नलिखित घोषणा कराता थासमोचीन धर्म वृद्धि को प्राप्त हो । समस्त भूमि का अधिपतिराजा कल्याण से युक्त हो चिरकाल तक बिघ्नबाधाओं से पृथ्वी मंडल की रक्षा करे । पृथ्वो समस्त इतियों (प्राकृतिक बाधाओं) से रहित और समस्त धान्यों सहित हो । भष्य जीव जिनागम के श्रद्धालु, विचारवान्, आचारवान्, प्रभाद्धान, ऐश्वर्यवान, दयालु, दानी, सदाविद्यमान, गुरुभक्ति, जिनभक्ति, दीर्घआयु और हर्ष से युक्त हो । धर्म पत्नियों धार्मिक कार्य, पातिवृत्य, पुत्र और विनय सहित हो' । आदिपुराण से पता चलता है कि यद्यपि सामान्यत: बड़ा पुत्र राज्य का अधिकारी होता था किन्तु मनुष्यों के अनुराग और उत्साह को देखकर राजा छोटे पुत्र को भी राजपट्ट बाँध देता था । यदि पुत्र बहुत छोटा हुआ तो राजा उसे राजसिंहासन पर बैठाकर राज्य की सब व्यवस्था सुयोग्य मन्त्रियों के हाथ सौंप देता था । पिप्ता के साथ साथ अन्य राजा. अन्त:पुर पुरोहित तथा नगरनिवासी भी अभिषेक करते थे । क्रमश: तीधजल,कषायजल,तथा सुगन्धित जल से अभिषेक किया जाता था | नगरनिवासी कमलपत्र के बने हुए दोने और मिट्टी के घड़े से भी अभिषेक करते थे अभिषेक के अनन्तर राजा आर्शीवाद देकर पुत्र को राज्यभार सौंप देता था और अपने मस्तक का मुकुट उतारकर उत्तराधिकारी को पहना देता था । इस प्रकार राज्याभिषेक सम्पन्न होता था 1 चक्रवर्ती के राज्याभिषेक में बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजाओं के आने का उल्लेख प्राप्त होता है 1 पट्टबन्ध की क्रिया मन्त्री और मुकुटबद्ध राजा करते थं। पट्टबन्ध के समय युवराज राजसिंहासन पर बैठता था, अनेक स्त्रियां उस पर चंवर ढोरती थी और अनेक प्रकार के आभूषणों से वह देदीप्यमान होता था आदि पुराण के सोलह पर्व में राज्याभिषेक की विधि का सांगोपांग वर्णन किया गया है। चन्द्रप्रभचरित से ज्ञात होता है कि चक्रवर्ती राजा का पट्टाभिषेकोत्सब बड़े ठाठवाट से होता था । उत्तम गन्ध, धूप, पुष्प, और अनुलेपनों द्वारा वीतराग देव की उपासना कर वे निधियों और रत्नों की पूजा करते थे । उनके पिता अनेक राजाओं के साथ उनका चक्रवर्ती के वैभव के अनुरूप पट्टाभिषेकोत्सव करते थे । उस समय मित्र और पुरनारियो आनन्द मनातं", आकाश से देवगण पुष्पवृष्टि करते सुहृदों के मन्दिरों में ध्वज फहराए जाते, शत्रुओं के घर भावी विनाश के मूनक केतु (बुरेग्रह) उदित होते, पृथ्वी पर वारवनितायें (वेश्यायें) और स्वार्ग में किन्नर बघुयें सुन्दर नृत्य करती और गीत गाती", राजा के मन्दिर में आकर नट और गायक मंगलगान करते तथा नभाङ्गण कोयल के समान मधुर ध्वनि वाले तुम्बरु आदि के गानों से व्याप्त हो जाता है.

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