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तृतीय अध्याय
: राज्य : राज्य की परिभाषा और उसका क्षेत्र - राज्य की परिभाषा देते हुए आचार्य सोमदेव ने कहा है- राजा का पृथ्वी की रक्षा के योग्य कर्म राज्य ह' । यहाँ पृथ्वीपालनोचित कर्म से तात्पर्य षागुम्य (सन्धि, त्रिग्रह, यान, आसन, संक्षय और वैधोभाव) से है । वर्ग सापक विवान ने लिखा है कि काम विलास आदि को छोड़कर षागुण्व (सन्धि, विग्रहादि) के चिन्तन करने का कार्य राज्य कहलाता है । जो राजा एकमात्र विलासीमन होकर षागुण्य का चिन्तन नहीं करता है, उसका राज्य शीघ्र हो नष्ट हो जाता है ।
अगले सूत्र में सोमदेव कहते हैं - वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य तथा श्रद्र) तथा आश्रम (ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और यति) से युक्त और धान्य, हिरण्य (सोना) पशु एवं कुप्य (लोहा आदि धातुयें) तथा वृष्टि रूप फल को देने वाली पृथ्वी को राज्य कहते हैं । उपर्युक्त परिभाषा के अनुसार राज्य के लिए निम्नलिखित तत्त्र आवश्यक है - 1, जनसंख्या
2. प्राकृतिक साधन 3. उचित जलवायु
4. राजा का पृथ्वी की रक्षा करने योग्य कर्म । उपर्युक्त चार तत्वों के अतिरिक्त सोमदेव ने दो अन्य तत्वों का उल्लेख किया है। जिनमें राज्य की मूलशक्ति निहित रहती है । वे सत्य हैं - क्रम (आचारसम्पत्ति) और विक्रम ( पराक्रम - सैन और रोग की शकि इ: ग्राम रर के प्रमुख तु. 1. जनसंख्या
2. प्राकृतिक साधन 3. उचित जलवायु . 4. सदाचार 5. राजा का पृथ्वी की रक्षा करने योग्य कर्म 6 पराक्रम (मैन्य और कांश की शक्ति )।
वादीभसिंह ने राज्य को योग और क्षेम की अपेक्षा विस्तार से तप के समान कहा है; क्योंकि तप तथा राज्य से सम्बन्ध रखने वाले योग और क्षेम के विषय में प्रमाद होने पर अध: पतन होता है और प्रमाद न होने पर भारी उत्कर्ष होता है । गुणभद्र के अनुसार राज्यों में राज्य वही है जो प्रजा को सुख देने वाला हो ।
___ वरांगचरित में राज्य के लिए देश', जनपद विषय", तथा राज्य" शब्दों का प्रयोग हुआ है । एक राज्य के अन्तर्गत अनेक राष्ट्र आते थे । राष्ट्र शब्द से अभिनाय प्रान्त से था13 । राज्य की परिधि बड़ी विशाल थी और उसके अन्तर्गत राजा के अतिरिक्त सेवक, मित्र, कोश, दण्ड, अमात्य, जनता, दुर्गा, ग्राम, नगर, पत्तन (सामुद्रिक नगर),आकर (खनिकों को बस्तियाँ), मडम्ब, खेट", व्रजा (ग्वालों की बस्तियाँ), पथ, कानन (जंगल) नदी, गिरि (पर्वत, झरनं". समस्त वाहन तथा रत्न आ जाते थे । राज्य का सद्भाव कर्मभूमि में ही बतलाया गया है । भोगभूमि में राज्य वगैरह का सद्भाव नहीं था।
• हरिवंश पुराण के अनुसार देश के जो लक्षण प्राप्त होते हैं उनमें उर्वरा और शालि-ब्रीहि सन्न प्रकार के धान्यों के समूह से सफलता को धारण करने वाली भूमि, सफल वाणिज्य, उत्तम