Book Title: Jain Rajnaitik Chintan Dhara
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Arunkumar Shastri

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Page 35
________________ 25 अधिपति बनाता है, उसको नमस्कार करने वालो भी जनता चित्रगत राजा के समान देखती है 45 | आन्तरिकशत्रु और उनके प्रभाव के विषय में असग ने अपने विचार व्यक्त किये हैं । काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ, मात्सर्य ये छह अन्तरंग शत्रु कहे गये हैं। जो राजा इन पर विजय प्राप्त करने का प्रश्न करता है उसके समीप जाकर राजलक्ष्मी उसी तरहवृद्धि को प्राप्त होती है जिस प्रकार कल्पवृक्ष के समीप जाकर कल्पलता वृद्धि को प्राप्त होती है। चाहे कोई कितना ही उन्नत क्यों न हो, यदि स्त्री रूपी पाश से बंधा हुआ है तो दूसरे लोग उसे पदाक्रान्त कर देते हैं। जिसके चारों ओर बेल लिपटी हुई है, ऐसे महान तरु (वृक्ष) के उपर बालक भी चढ़ जाता है? | क्रोध तृष्णा को बढ़ाता है, धैर्य को दूर करता है, विवेकबुद्धि को नष्ट करता है मुझ से नहीं करने योग्य कार्यो को भी कराता है एवं शरीर और इन्द्रियों को सन्तप्त करता है । आँखों में लालिमा, शहेर में अनेक प्रकार का कंप, चिन्त में विवेकशून्य चिन्तायें अमार्ग में गमन और श्रम इन बातों को तथा इनसे और नेक काम पन्न करता है या मंदिरा का मद। - संसार में जो आदमी बिना कारण के प्रतिपद क्रोध करता है, उसके साथ उसके आप्तजन भी मित्रता नहीं रखना चाहते हैं। विष का वृक्ष मंद मंद वायु से नृत्य करने वाले फूलों के भार से युक्त रहता है, तो भी भ्रमर उसकी सेवा नहीं करते हैं | यदि कोई अतिबलवान् और पराक्रम का धारक भी अत्यन्त उन्नत हुए दूसरों पर कोप करे तो ऐसा करने से उसकी भलाई नहीं होती। मृगराज मेघों की तरफ स्वयं उछल उछलकर व्यर्थ प्रयास करता है । उत्पन्न हुआ क्रोध कठोर वचन बोलने से और बढ़ता है, किन्तु कोमल शब्दों से वह शान्त हो जाता है। जो किसी कारण कोप करता है यह तो सदैव अनुनय से शान्त हो जाता है, किन्तु जो बिना कारण क्रोध करता है. उसका प्रतीकार कैसे हो सकता है। अतः अभिवाञ्छित कार्यसिद्धी की रक्षा करने वाली अन् आँखों के लिए सिद्धांजन की अद्वितीय गोली और लक्ष्मी रूपी लतावलय को बढ़ाने वाली जलधारा क्षमा ही हैं ७ | वे व्यक्ति अच्छे माने जाते हैं और उन्हीं की प्रशंसा होती है जो शत्रु के सामने निर्भय रहते हैं तथा सम्पत्ति आने पर भी जो मद नहीं करते हैं । जिसकी बुद्धि मद से मुर्च्छित ही रही है ऐसा उद्धत पुरुष हाथी की तरह तभी तक गर्जता है जब तक वह सामने भीषण आकार के कारक सिंह समान शत्रु को नहीं देखता है । अपने मन में विभूति का गर्व नहीं करना चाहिए। जो लोग इन्द्रियों पर विजय प्राप्त नहीं कर सके हैं. वन भूढात्माओं की सम्पत्ति सुख के लिए नहीं हो सकती हैं। फ । सोमदेव सोमदेव ने यशस्तिलक चम्पू के अन्त में अपने विषय में पर्याप्त सूचना दी है। वह देवसंघ के आचार्य यशोदेव के प्रशिष्य और नेमिदेव के शिष्य थे। नीतिवाक्यामृत की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि सोमदेव महेन्द्र देव के लघुभ्राता थे और स्याद्वादचलसिंह, तार्किक, चक्रवर्ती वादीभन वाकल्लोलपयोनिधि तथा कविकुलराज उनकी उपाधियाँ थी। उसमें यह भी लिखा है कि सोमदे यशोधर महाराज चरित, षष्णवतिप्रकरण, महेन्द्रमातलिसंजल्प और युक्तिचिंतामणिस्तव के रचियता थे । 'यशोधरमहाराजचरित का ही दूसरा नाम यशस्तिलक चम्पू है। शक संवत् 881 (959 ई.) मैं सिद्धार्थ संवत्सर में चैत्र मास की मदनत्रयोदशी के दिन जब कृष्णराजदेव पाण्ड्य सिंहल, चोल और चेरम आदि राजाओं को जीतकर मेलपाटी में शासन करते थे, यशक्तिलक समाप्त हुआ ऐसा सोमदेव ने स्वयं लिखा है। सोमदेव का यह उल्लेख ऐतिहासिक दृष्टि से सत्य है क्योंकि सोमदेव के यशस्तिलक की सामाप्ति से कुछ ही सप्ताह पूर्व मेलपाटी में 9 मार्च सन् 959 ई. के दिन अंकित किये गये महान् राष्ट्रकूट चक्रवर्ती कृष्ण तृतीय के करहार ताम्रपत्र से उसका समर्थन होता है। इस ताम्रपत्र में चोलों के साथ चेरम, पाण्ड्य सिंहल, आदि देशों के राजाओं के ऊपर कृष्णराज तृतीय की विजय का निर्देश है। उसमें यह भी लिखा है कि कृष्णराज ने अपना

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