________________
व्यसन नहीं हर पाते थे। कुमार की उदारता का क्या कहना ? उनकी उदारता को देखकर अन्य उदार लोग अपनी उदारता का वृथा अनमान या देते थे सत्तास्ते मा पर पड़ता ही है अत: इनके साथ कायर लोग भी शूर हो जाते थे। इस प्रकार नीति को मानने वाले लोगों के लिए जो अभीष्ट है, ऐसे उदारता, शूरता और सत्य ये तीन गुण आपस में स्पर्धाकर उनमें बढ़ने लगते थे। उसकी नीति इन्द्र से भी बढ़कर होती थी। स्वाभाविक विनीत भात्र और वैभव का अनुगामी. क्षमागुण विनय का अनुगामी और पराक्रम झमागुण को अलंकृत करता था। उसके गुण से निमल, महान् और समस्त तेजस्वियों के उदय का स्थान वंश प्रकाशित होता था' | गुणों के आश्रय राजकुमार केवल अपने ही पक्ष के लोगों को हर्षित नहीं करते थे, अपितु दुष्ट स्वभाव वाले शत्रुओं को भी खुश करते थे, क्योंकि पुण्यात्मा लोगों के लिए ऐसा कोई कार्य नहीं, जो असाध्य हो। काम, क्रोधादि छह अन्तरंग शत्रुओं को जीतने वाले, कृतज्ञ और अधिक गुण वालों में श्रेष्ठ कुमार में सय गुणों का वास देखकर ईर्ष्या के कारण दोष उन्हें छूते भी नहीं थे। इस प्रकार के सुयोग्य राजकुमार कोही युवराज बनाया जाता था और अन्त में राजा लोग पुर. वाइन सहित उन्हें राज्य भी दे देते थे। इस प्रकार लोगों की धनधान्य से पूर्ण और महान् गुणों से युक्त बनाते हुए नीतिदशी राजकुमार ही आश्रित लोगों के यथार्थ स्वामी और गुरु होते थे ।
असता
महाकवि अमग द्वारा रचित वर्धमानचरित और शान्तिनाथ चरित को प्रशस्तियों से ज्ञात होता है कि उनके पिता का नाम पटुमति और माता का नाम रैति था । माता-पिता अन्यन्स मुनिभक्त थे इसलिए उन्होंने बालक असग का विद्याअध्ययन मुनियों के पास ही कराया था। असग की सिक्षा नागनदी आचार्य और मावकीर्ति मुनिराज के चरणमूल में हुई थौ । असग ने वर्धमारचरित
की प्रशस्ति में अपने पर ममताभाव प्रकट करने वालो सम्पत् श्राविका और शान्तिनाशपुराण की प्रशस्ति में अपने ब्राह्मण मित्र जिनाप का उल्लेख किया है. अतः प्रतीत होता है कि यह दोनों ग्रन्थों के रचनाकाल में गृहस्थ ही थे, मुनि नहीं । बाद में मुनि हुए या नहीं इसका निर्देश नहीं मिलता है । यह चोलदेश के रहने वाले थे और श्रीनाथ राजा के राज्य पे स्थित विरला नगरी में उन्होंने आठ ग्रन्थों की रचना की थी। चूंकि इनकी मातृभाषा कर्नाटक थी; अत; जान पड़ता है कि इनके शेष 6 ग्रन्थ कर्णाटक भाषा के थे और वे दक्षिणभारत के किन्ही भण्डारों में पड़े हो या नष्ट हो गए हों । भाषा की विभिन्नता से उनका उत्तर भारत में प्रचार नहीं हो सका हो ।
वर्धमानचरित की प्रशस्ति के अनुसार इसकाध्यकारचनाकाल संवत 10 है। दक्षिणभारत में शक संवत् का प्रचलन अधिक होने से इसे विद्वान शक संवत मानते आए हैं. किन्तु डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन ने इसे विक्रम संवत माना है, क्योंकि 95 ई. के पंप, पोन आदि कन्नड कवियों ने असग की प्रशंसा की है।
महाकवि असग के काव्यों में राजनीति के तत्त्व ओत-प्रोत हैं। उदाहरणत: वर्धमानचरित में राजा के दोषों के विषय में असग कहते हैं - मेरो लक्ष्मी दूसरों से अत्यधिक है, मैं दूसरों से दुर्जेय हूँ, इस तरह का गर्व करके जो राजा निष्करण दूसरों का तिरस्कार करता है वह मंसार में अधिक दिनों तक जीवित नहीं रह सकता है। । जगत के भय का नाश किए बिना जो जगत का