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22 ये तीनों सिद्धियाँ धर्मानुबन्धिनी सिद्धि को फलीभूत करती है। यथार्थ में शक्तियों वही हैं जो दोनों लोकों में हित करने वाली हो राजा को उत्साह, मन्त्र और फल इन तीन सिद्धियों सहित होना चाहिए। सन्धि, विग्रह, यान, आसन, संश्रय और वैधीभाव ये राजा के छह गुण हैं। ये छहों गुण लक्ष्मी के स्नेही है । इस प्रकार गुणभद्र की रचनाओं में राजनीति की विपुल सामग्री प्राप्त होती है।
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तीरनन्दि
वीरनन्दि मान्द संघ देशोय गण के आचार्य थे । चन्द्रप्रभकाव्य के अन्त में जो प्रशस्ति आयी है. उससे ज्ञात होता है कि ये आचार्य अभयनन्दि के शिष्य थे।अभयनन्दि के गुरु का नाम गुणनन्दिा था । क्षवणबेलगोल के 47 वें अभिलेख में बतलाया है कि गुणनन्दि आचार्य के 300 शिष्य थे, उनमें 72 सिद्धान्तशास्त्र के मर्मज्ञ थे। इनमें देवेन्द्र सैद्धान्तिक सबसे प्रसिद्ध थे।इन देवेन्द्र सैद्धान्तिक के शिष्य कलधौतनन्दि या कनकनन्दि सिद्धान्तचक्रवतीं थे। कनकनन्दि ने इन्द्रनन्दि गुरू के पास सिद्धान्तशास्त्र का अध्ययन किया था । आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने अपने गोमटसार कर्मकाण्ड में अभयनन्दि, इन्द्रनन्दि और बोरनन्दि इन तीनों आचार्यों को नमस्कार किया है | उनके गोमट्सार कर्मकाण्ड की एक गाथा से यह भी अवगत होता है कि इन्द्रनन्दि इनके गुरु थे। कनकनन्दि भी गुरु के समकक्ष ही रहे होंगे, अत: इन्होंने उन्हें भी गुरु कहा है। एक अन्य गाथा में बताया है कि जिनके चरणप्रसाद से वीरनन्दि और इन्द्रनन्दि शिष्य अनन्त संसार से पार हुए है. उन अभयनन्दि गुरु को नमस्कार है । उक्त संदर्भ से सिद्ध है कि वीरनन्दि के गुरु अभयनन्दि, दादागुरु गुणनन्दि और सहाध्यायी इन्द्रनन्दि थे। नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती भी इनके लघुगुरु भाई प्रतीत होते है । डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री ने वीरनन्दि का समय उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर ई. सन् 950-999 निर्धारित किया है।
आचार्य वीरनन्दि के अनुसार राजा पालन पोषण करने शिक्षा देने और कष्ट दूर करने के कारण सारी प्रजा का स्वामी गुरु और सुहृद है। वह अपनी प्रजा को नववधू के समान सब प्रकार से सन्तुष्ट करने का प्रयत्न करता है जिस प्रकार पति अपनी नववधूको रतिया सुरसकीड़ा से प्रसन्न करता है उसी प्रकार राजा अपनी प्रजा को रति अर्थात् प्रीति से प्रसन्न करता है और जिस तरह यति तरह-तरह के उज्जवल वर्णों या रंगों की चित्ररचना से वधू के शरीर को अलष्कृत करता है उसी तरह राजा प्रजा को ब्राह्मण क्षत्रियादि वर्गों को उज्जवल व्यवस्था से शोभित करता है । इस प्रकार समस्त प्रजा उसके वश में हो जाती है |
राजा और प्रजा एक दूसरे के हर्ष और विषाद में समान रूप से सम्मिलित होते थे । जब राजा मुनि वगैरह को वन्दना के लिए जाता था तो यात्रा को सूचना देने के लिए नगाड़े बजाए जाते थे" नगाड़े की ध्वनि सुनकर हजारों पुरुषों का समूह राजद्वार (राजगोपुर) पर एकत्रित हो जाता था । अनन्तर पुरवासी, सुहृवर्ग, बन्धु बांधव, सेना, सामन्त, पुत्र और रानियों सहित राजा अभीसित स्थान पर जाता था । सुयोग्य राजा का प्रकृति भी साथ देती थी। उसके राज्यकाल में कोई अकालमृत्यु से नहीं मरता था और अतिवृष्टि या अनावृष्टि लोगों को व्याकुल नहीं करती थी, कानों के पर्दे फाड़ने वाले कठोर शब्द से युक्त दारुण हवा नहीं चलती थी, रोगों की वृद्धि नहीं होती थी और अधिक जाड़ा या गर्मी नहीं पड़ती थी। सारे जनपद में कभी इति (टिड्डी) मूसे, अनावृष्टि आदि की बाधा नहीं होती थी, पुर के तर हिंस्र पशु भो हिंसावृति को छोड़ देते