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शत्रु विजय के विषय में वादीमसिंह का कहना है कि शत्रु मनोरथ की सिद्धि पर्यन्त प्रसन्न करने योग्य होते हैं। अपने शत्रु के कार्यों की प्रबलता और उसके विचार को जानकर प्रतीकार करना चाहिए । इस प्रकार उत्तम उपायों से प्रसिद्ध मनुष्य कार्य को पूर्ण करने में रूकावट रहित होते हैं ।
वादीभ सिंह के ऊपर अपने पूर्ववर्ती कवियों का प्रभाव स्पष्ट द्योतित होता है। गद्यचिन्तामणि की प्रस्तावना में पं. पन्नालाल जी ने कतिपय ऐसे प्रसंगों को दर्शाया है। इन प्रसंगों में राजनैतिक प्रसंग भी सम्मिलित है" ।
जिनसेन द्वितीय
आचार्य जिनसेन द्वितीय मूलसंघ के उस पंचस्तूप नामक अन्वय में हुए हैं जो आगे चलकर सेनान्वय या सेनसंघ नाम से प्रसिद्ध हुआ। पाश्वभ्युदय" के अन्त में आए हुए पद्म से इतना स्पष्ट है कि वीरसेनाचार्य के ये शिष्य थे। विनयसेन इनके गुरुभाई थे। उन्हीं के कहने पर इस काव्य की रचना को गई है। अमोधवर्ष राष्ट्रकूट वंश का राजा था और कर्नाटक तथा महाराष्ट्र पर शासन करता था। यह शक सं. 736 (वि. सं. 871) में राज्यासीन हुआ था। इसकी राजधानी मान्यखेट अथवा मलखेड थी। जिनसेन के उपदेश से यह जैनधर्म में दीक्षित हो गया था। प्रश्नोत्तररत्नमाला से ज्ञात होता है कि अमोघवर्ष अपने पुत्र को राज्य सौंप स्वयं मुनि बन गया था जिनमेन के पाश्वभ्युदय का उल्लेख हरिवंशपुराण (शक सं. 705 सन् 783 ई.) में आया है। अतः पाश्र्वभ्युदय की रचना ई. सन् आठवीं शती में हो चुकी थी। जिनसेन द्वितीय ने वीरसेन द्वारा आरम्भ की गई जयश्रवला की परिसमाप्ति शक संवत् 759 (ई. 837) फाल्गुन शुक्ला दशमी के पूर्वाहण में को थी । अतः जिनसेन की रचनाओं का क्रम घटित करने पर पाश्र्वभ्युदय के अनन्तर जयधवला टीका और उनके पश्चात् आदिपुराण का क्रम आता है। डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन ने लिखा है- वोरसेन स्वामी के यह शिष्य सेनसची आचार्य जिनसेन के राजगुरु और धर्मगुरु थे। ये विभिन्न भाषावित् एवं विविधविषयपटु दिग्गज विद्वान थे। लड़कपन से ही उनके साथ अमोघवर्ष का सम्पर्क रहा था और वह उनकी बड़ी विनय करता था । अतएव जिनसेनाचार्य का स्थितिकाल शक संवत् 680765 (सन् 758-837 ई.) होना चाहिये" ।
पाश्र्वभ्युदय मेघदूत के पदों को लेकर समस्यापूर्ति के रूप में लिखे गये काव्यों में सबसे पहला काव्य है। इस काव्य में चार सर्ग है। प्रथम सर्ग में 118 पद्य, , द्वितीय में 118, तृतीय में 57, चतुर्थ में 71, इस प्रकार कुल 364 पद्यों में काव्य लिखा गया है 1 काव्य की भाषा प्रौढ़ है और मेघदूत के समान ही मन्दाक्रान्ता छन्द का व्यवहार किया है । जिनसेन द्वितीय की दूसरी रचना वर्धमानपुराण है, जिसका उल्लेख जिनसेन ने अपने हरिवंश पुराण में किया है, सम्प्रति यह अनुपलब्ध है ।
कषायप्राभृत के पहले स्कन्ध की चारों विभक्तियों पर जयधवला नाम की टीका लिखकर जब गुरु वीर सेनाचार्य स्वर्ग को सिधार चुके सब उनके शिष्य श्री जिनसेन स्वामी ने उसके अवशिष्ट भाग पर 40 हजार श्लोक प्रमाण टीका लिखकर उसे पूरा किया। यह टीका जयघवला के नाम से प्रसिद्ध है ।
आदिपुराण कवि की प्रौढ़ावस्था की कृति है। यह महापुराण का एक भाग है। इसमें 47 पर्व हैं, जिनमें प्रारम्भ के 42 और तैतालीस पर्व के 3 श्लोक जिनसेनाचार्य द्वारा रचित है। शेष पर्वो के 1620 श्लोक उनके शिष्यभदन्त गुणभद्राचार्य द्वारा रचित है |