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छत्रचूड़ामणि में भगवान महावीर के समकालीन राजा सत्यन्धर की विजयारानी के पुत्र जीवन्धरकुमार का वृत्तवर्णन है। इनका जीवनवृत अनेक घटनाओं से भरा हुआ है और धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष चारों पुरुषार्थों का फल प्रदर्शित करने में अद्वितीय है। ग्रन्थ की रचना ग्यारह लम्भों में अनुष्टुप् छन्द में की गई है । गद्यचिन्तामणि का कथानक छत्रचूडामणि के समान है ! इसको रचना संस्कृत गद्य में की गई है । श्री कुप्पुस्वामी ने गद्यचिन्तामणि के विशिष्ट गुणों को चर्चा करते हुए कहा है -
वादीभसिंह के काव्यपश्च में पदों की सुन्दरता, श्रवणीय शब्दों को रचना, अप्रतिहत वाणी, सरल कथासार, चित्त को आश्चर्य में डालने वाली कल्पनायें. हृदय में प्रसन्नता उत्पन्न करने वाला धर्मोपदेश, धर्म से अविरूद्ध नीतियों और दुष्कर्म के फल की प्राप्ति आदि विशिष्ट गुण सुशोभित
यादीमसिंह का समय विद्वानों ने आठवीं शती का अन्त और नवीं शताब्दी ईसवी का पूर्वाधं सिद्ध किया है । तत्कालीन राजनैतिक जीवन की झांकी वादीभसिंह के काव्यों में पर्याप्त मिलती है । उदाहरणतः गद्यचिन्तामणि के द्वितीय लम्भ में पदाति, अश्व, हाथी और रथ चार प्रकार की सेना का निर्देश किया गया है । आक्रमण का मुकावरमा करने के लिए अथवा आक्रमण करने के लिए सेना का उपयोग किया जाता था ।सबसे पहले राजा सेनापतियों को आज्ञा देता था, पश्चात सेनापतियों की आज्ञानुसार सेना कार्य करती थी । वादोभसिंह ने मेना के प्रयाण का मुन्दर चित्र खींचा है । गोविन्द महाराज काष्ठांगार के यहाँ ससैन्य जा रहे हैं, उस समय अत्यन्त सफेद वारवाणों से सुशोभित श्रेष्ठ केचुकी वेत्रलताओं से राजा के उपकरण धारण करने वाले लोगों को प्रेरित कर रहे थे। राजा के अत्यन्त दूरवर्ती स्थान तक यह समान भेजना है, यह समाचार सुनने के लिए भण्डारियों का समूह एकत्रित होकर शीघ्रता कर रहा था। गुरुजन विनयपूर्वक नमस्कार करते हुए लोगों को आशीर्वाद दे रहे थे । लौटने को आशा से रहित भोरू योद्धा गाड़े हुए धन से युक्त कोने दिखला रहे थे। आगे जाने वाले लोग बड़े पेट वाले दासी पुत्रों को बार-बार बुलाने से खिन और पसीने से तर हो रहे थे। भूले हुए आश्चर्यकारक आभूषणों को लाने के लिए भेजे हुए सेवक अस्पष्ट तथा निरोधी वचन कर रहे थे । तेजी से जाने वाले सम्बन्धी पीछे देखने के बाद लौटकर पुन: पीछे . पीछे चलने लगते थे । गोण गिरा देने वाले बैल के द्वारा डरे हुए यात्रियों को भीड़ इकट्ठी हो रही थी । क्रोधी चाण्डाल मजबूत कुल्हाड़ी से वृक्ष चीरकर रास्ता चौड़ा करते जाते थे । खोदने वाले (खनित्रगण) कुयें बनाते जाते थे । तात्कालिक कार्य में निपुण बढ़ई नदियों तैरने के लिए ना तैयार कर देते थे। सेना के कोलाहल से सिंह भयभीत होकर भाग जाते थे। बड़े-बड़े हाथी वृक्षों के लट्टे उखाड़कर मार्ग में रुकावट पैदा करते थे। वनचर हाथियों की रगड से छिटकी हुई वृक्षों की छाल देखकर हाथियों के शरीर का अनुमान करते थे। हाथी की गन्यसूंघकर बिगड़ने वाले जगली हाथियों को पकड़ने वाले योद्धाओं का शब्द चारों दिशाओं में हो रहा था। अन्न और वस्त्र से युक्त सब शस्त्र हाथी, घोड़े, गधे, भैंसे, मेढ़े, बैल, रथ तथा गाड़ी आदि प्रमुख वाहनों पर लाद दिए गए थे। इस प्रकार की सेना जब समीप वसों हेमांगद देश में पहुँचने को उद्यत हुई तब शिस्पिसमाज के प्रमुखों ने पटकुटी बनाई । काष्ठागार के द्वारा सम्मानित गोविन्द महाराज ने उसमें प्रवेश किया।