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1. भेजे हुये व्यक्ति के कृतार्थ हो चुकने पर उसका कालाप करना निष्कल है। 2. सन्तप्त वस्तु का मेल सन्तप्त से कराया जाता है। 3. सूर्य के पतन का जब काल आता है तो अन्धकार की प्रबलता हो जाती है। 4. पाप में अनुराग रखने वाले किस पुरुष पर सज्जनों का विद्वेष नहीं होता। 5. दीर्घसूत्री मनुष्य नष्ट होता है। 6. संसार में कौन किसे सुख देता है अथवा कौन किसे दुःख देता है ? कौन किसका मित्र है और
कौन किसका शत्रु है ? अपना किया हुआ कार्य ही सुख अथवा दुख देता है।
धनंजय
धनंजय तथा उसके काव्य की विद्वानों ने पर्याप्त प्रशंसा की है। इन्होंने अपने को अकलंक तथा पूज्यपाद के समकक्ष बतलाने के अतिरिक्त अपने विषय में कोई परिचयात्मक जानकारी नहीं दी है। द्विसन्थान महाकाव्य की टोका में नेमिचन्द्र ने द्विसन्धानसर्ग B, श्लो. 146 जिसमें अत्यधिक श्लेष है, के आधार पर परिचयात्मक विवरण निकाला है। तदनुसार वासुदेव तथा श्री देवी के पुत्र थे। उनके गुरु का नाम दशरथ था । धनञ्जय के लेखक से भिन्न है । यनंजय अकलंक (7इन्त्रीं शती ईसवी) तथा वीरसेन, जिन्होंने 816 ईस्त्री में अपनी पवला टीका पूर्ण की थी, के मध्य हुए । इस प्रकार धनंजय का समय 800 ईस्वी अनुमानित किया जा सकता है। वह किसी भी प्रकार भोज ( 11वीं शती का मध्य) जिन्होंने स्पष्ट रूप से उनका तथा उनके द्विसन्धान महाकाव्य का उल्लेख किया है, से बाद के नहीं हो सकते । द्विसन्धान महाकाव्य या राघव पाण्डवीय के अतिरिक्त धनंजय की अन्य दो कृतियां प्राप्त होती हैं - (1) विषापहार स्तोत्र (2) नाममाला |
धनंजय राजनीति के गहन अध्येता थे, उनके विचार इस बात की पूर्ण साक्षी देते हैं । उदाहरणत: धनंजय का कहना है कि प्रजा का भली भांति पालन करने हेतु राजा को समस्त प्राणियों की सुरक्षा की व्यवस्था करके आदर्श मर्यादाओं का पालन करना चाहिए तथा विशिष्ट आत्मगौरव की भावना के साध अभय का एक मात्र नारा देते हुए खड्ग धारण व्रत का पालन करना चाहिए। लोगों में इस प्रकार अपवाद नहीं होना चाहिए कि भाग्य से सब कुछ मिलता है.राजा कुछ नहीं देता है । जनता राजा के विषय में यही कहे कि यह राजा सज्जनों का विधाता है और दुर्जनों का काल है। साथ ही यह भी सोचना चाहिए कि विरूद्ध कार्य दण्डादि द्वारा वैर बढ़ता है, अतएव उसे प्रिय कर्मों के द्वारा शान्त कर देना चाहिए। धान्य सूर्य के आतप में खूब बढ़ता है, किन्तु वृक्ष की छाया के द्वारा दब जाने पर उसमें अंकुर नहीं फूटते हैं" | राजाओं को समस्त पृथ्वी प्रेम के द्वारा वश में करना चाहिये । यहां न तो कोई अपना है और न पराया है । गुणों के द्वारा ही राजाओं के अपने और पराए बनते हैं" । राज्य का भली भांति पालन करने के लिए यत्न करना पड़ता है। यदि राजा के कार्यादि के बिना ही राजा का प्रभाव, महात्म्य आदि राज्य करने वालों के समान हो जाय और कीर्ति को प्राप्त कर ले तो अनेक चिन्ताओं से बाधा युक्त इस राज लक्ष्मी से क्या प्रयोजन है ? राजा के प्रधान लोकप्रिय अधिकारी जिस राज्य की जनता की भली भांति रक्षा करते हैं, उस राज्य के सामन्त राजा भी अपने-अपने नगरों और ग्रामों से होने वाली आय को जनता का धन मानते हैं और उनके विकास में ही व्यय करते हैं। राजा को चाहिए कि वह उचित और