Book Title: Jain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Author(s): Motichand Rupchand Zaveri
Publisher: Motichand Rupchand Zaveri
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शांतिनाथना.
॥ १९ ॥
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दिन दिन पडतो काल, क्रोध लोभ मद मत्सर वधशे, दे अणहुंता आल, गौतम सांभलो रे ॥ आंचली ॥९॥ चक्री आठ गयां नर मुक्ति, बे चक्री सुर मोटां; सुभुम राय ब्रह्म दत्त गया नरकें, | पुण्य काज हुआ खोटा ॥ १० ॥ गौतम सांभलो रे० ॥ वासुदेव नव निश्चयें होशे, नरकतणि लही वाटो; जे भुपति संग्राम करतां, त्रण सयां ने साठों ॥ गौतम० ॥ ११ ॥ रह्यां प्रति वासुदेव नव नीका, | नवि छंडे धन नारि; वासुदेव तणि करि मरंता, ते नरक तणां अधिकारी गौ० ॥ १२ ॥ नव बलदेव हुआ इणे आरे, नव नारद नर मोटा: छोटा गौ० ॥ १३ ॥ दुहा — गौतम अंतें हुं हुवो; तव काया कर सात; मुज शासन मां जेहवो, हसि ते भावात ॥ १४ ॥
ढाल ॥ २ ॥ सुर सुंदरी कहि शीर नामी ॥ ए देशी ॥ भाखें वीर जिणेसर त्यारे, में संयम लीधुं ज्यारे; वरस त्रण गयां त्यां निहालो, त्यारें कुशिष्य मल्यो रे गोशालो ॥ १५ ॥ तेजो लेश्या ते पण ग्रहतो दोय मुनिवर जिनने दहंतो; अंते पातिक तेह आलोइ, बारमे स्वर्गे सुरहोइ ॥ १६ ॥
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पंच क०
स्तवन.
॥ १९ ॥