Book Title: Jain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Author(s): Motichand Rupchand Zaveri
Publisher: Motichand Rupchand Zaveri
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Gamandi
संयम-2 कीजे करतो जेटलां अविभाग थाय तेटलां अविभाग प्रथम संख्यात गुण वृद्धि स्थानादिकमां वधे॥ श्रेणीनुं इम आगल पण स्वबुद्धिए जाणवु ॥ १३ ॥ स्तवन गाथा-इम त्रिक दृद्धि अंतरेजी, गुण संख्यातनां ठाणं; कंडक माने नीपजेंजी, जाणे ॥१६७॥ तुंवर नाण० गुणों दधि० मेरु०॥१४॥
| भावार्थ:-इम त्रिक वृद्धिने विचाले एटले अनंत भाग वृद्धि १ असंख्य भाग वृद्धि २ संख्यात भागवृद्धि ३ ए त्रण वृद्धिनां स्थानक ने विचाले एक एक संख्यात गुंणर्नु स्थानक करीए इम करतां संख्यात गुण वृद्धिनां स्थानक कंडक प्रमाण निपजे ॥ एतले षट्वृद्धीमांहिं चोथी संख्यात गुण वृद्धि पूरीथइ॥संयम स्थानक चारित्र परिणाम रूप अरुपिछे ते माहि हे सर्वज्ञ सर्व तुं जाणे छे ॥ १४ ॥ | गाथा-पुनरपि त्रिक वृद्धितणांजी, परीस्थानक सर्व; असंख्यात गुण वृधिनुंजी, स्थानक एक अग० गुणो दधि० मेरु० ॥१५॥ भावार्थ:-संख्यात मुण वृद्धि कंडकनां चरम स्थानकथी आगल वली त्रण वृद्धिनां एटले
॥१६॥
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