Book Title: Jain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Author(s): Motichand Rupchand Zaveri
Publisher: Motichand Rupchand Zaveri
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संयमश्रेणीनुं स्तवनम्
भावथी निरावर्ण स्थाननें विषं विशरामी एवा श्री वीरप्रभुने नित्य प्रत्ये नमुं. प्रभुजीनी स्तवना करता थकां अनेक भवोपार्जित पोताना कस्यां क्षीरनी पेरे अभेद रह्यां जे पाप कर्म ते निगम प्रभो नमस्कार स्तुति फलम् उत्तर इव संयमनां षड् स्थानकने विषे जे अनंतरएकांतरादिक अहठाण प्ररूपणा छे ते हे सयणा हे सम्यग्दृष्टि उत्तमजीवो तमे सांभलो ए वचन श्रीबृहत्कल्पभाष्य वृत्तिनां छे ॥१॥ | त्रुटक-आदि असंख्य अंस वृद्धिथी कहो भाग अनंतर अंश केटलां, हेठ स्थानक इम पुछत कहिए कंडक जेटला; भाग संख्यातह गुणसंख्याते असंख्य अनंतह गुण वली, तस प्रथमथी कहे अध अनंतर कंडक माने केवली ॥२॥ | भावार्थः-असंख्यात भाग वृद्धनां प्रथम संयम स्थानकथी हे उत्तमजी कहो अनंत भाग वृद्धनां हेठलां स्थानक केटलांगयां एवीरीते कोइजीवपूछे त्यारे कहिए जे एक कंडक जेटलां गयांछे तेमाटे
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