Book Title: Jain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Author(s): Motichand Rupchand Zaveri
Publisher: Motichand Rupchand Zaveri
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ShriMahavirain AartmenaKendra
Acharya Sh Kailasagar
Gyanmandi
कर्मप्रकृति
श्रीआठ न्यग्रोध सादि कुब्ज वामण हुंडककुंरे, वरणपंच मनआण; कालंरे कालंरे नीलो रातो पीयलोरे॥१२॥
बोलविधोलु तिम दोगंध सुगंध दोगंधकुंरे, रसय पंचनुं मेल; तिरे तिरे कटुक कषाय तथा सुणोरे
चार 12॥ १३ ॥ खाटुं मीठं आठ फर्ष विवरु गुणोरे, गुरु लघु मृदु खरजोइ; टाढुंरे टाढुंरे उष्ण लुखो || स्तवनम्
चोपडोरे ॥ १४॥ E ढाल-४-चोथी ॥ सुरती मासनी-धीरपुरे एक शेठने पर्वदिने व्यवहार-ए देशी ॥ 13/ | नरक तिरय नरदेवनी-आनुपुर्वी ए च्यार, बलद राश जिम खेंचीएं-जीव तथा सुवीचारः || वृषभ गजादीक शुभगती-अशुभ उंटादीक होइ, पराघात उसास-आतप उद्योत दोय ॥१॥ अगुरुलड्डु तीर्थंकर-जीरमाणने उपघात, त्रस बादर पर्याप्ता-प्रत्येक थीर शुभवात; सुभग सुसर जश आदेय-थावर सुक्षिम नाम, अपजत्त साधारण अथिर अशुभर्नु ठाम॥२॥ दुभग दुसर अनादेय-अजश थइ सुतीत, नाम कर्म पयडी कही-गोत्रदोय मे कीन: प्रजादीक जिहां पामीएं उंच गोत्र ते|
होय, जिहां हेल्लादिक अतीघj-नीचगोत्र ते होय ॥३॥ अंतराय पंचय सुणो-छते न दीजें शा, ३३
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